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हर चीज का बदलना तय है

Jagran Sakhi
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कोई सभ्यता इसलिए नहीं बचती कि वह बहुत ताकतवर या बुद्धिमान है, अंतत: वही सभ्यता जिंदा रहती है, जो बदलाव को सहर्ष स्वीकार करती है।


चा‌र्ल्स डार्विन

हर चीज बदलती है। आगे बढने का नाम ही जिंदगी है। कई बार हम खुद बदलना चाहते हैं तो कभी जीवन-स्थितियां हमें बदलती हैं। सच यह है कि अतीत के रथ पर सवार होकर हम भविष्य की फास्ट-ट्रैक लाइन पर जिंदगी की गाडी नहीं दौडा सकते। समय के साथ कदमताल करते हुए आगे बढना अनिवार्य है।


बदलाव का बाइस्कोप

पिछले तीस-चालीस वर्षो में कितना कुछ बदल गया! ब्लैक एंड व्हाइट तसवीरें रंगीन हो गई, खेत-खलिहान छूटे तो शहरों में गांव बस गए। पाठशाला में टाट-पट्टी-तख्ती वाले बच्चे स्मार्ट क्लास का हिस्सा हो गए। दाल-रोटी वाले घरों में इंटरनेशनल प्लैटर ने अपनी जगह बना ली। गर्मियों की छुट्टियां रंगबिरंगी चित्रकथाएं पढते या कैरम खेलते हुए नहीं, दूर कहीं खूबसूरत वादियों या टूरिस्ट प्लेसेज पर गुजरने लगीं। राशन की दुकान के मोटे चावल और सस्ती चीनी की जगह मॉल्स के लंबे-लंबे बिलों ने ले ली। चिट्ठी न कोई संदेश जैसे गाने पुराने हो गए। पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और गली के नुक्कड पर लाल लेटर-बॉक्स एकाएक गायब हो गए। टेलीग्राफ सेवा भी बंद हो गई। ट्रंक कॉल्स बुक कराते-कराते हाथों में छोटा सा डिवाइस यानी सेलफोन आ गया..इसने हमारी दुनिया ही बदल दी।


कुछ बदला-कुछ छूट गया

नया कुछ स्वीकार्य तभी होता है, जब पुराने को छोडने की मंशा हो। ऐसा नहीं हो पाता तो मानव-सभ्यता त्रिशंकु बन कर रह जाती है। बदलाव हमेशा कुछ अप्रत्याशित लेकर आता है। कुछ बदलता है तो कुछ टूटता-बिखरता और छूटता भी है। हर बदलाव अच्छा हो, यह भी जरूरी नहीं। कई बार यह हमें चौंकाता है-हैरान करता है। कई बार लगता है, बदलाव एक भ्रम है, जो बाहरी स्तर पर दिख रहा है, भीतर से बदलाव आने में अभी देरी है। समाजशास्त्री डॉ. रितु सारस्वत कहती हैं, समाज जरूरतों के हिसाब से बदलता है, लेकिन ये जरूरतें लोगों को किस हद तक या कितना बदलेंगी, यह सटीक तौर पर नहीं कहा जा सकता। दरअसल हम बहुत स्वार्थी हैं। हम अपनी सोच को उतना ही बदलते हैं, जितने में वह हमारे लिए फायदेमंद हो..। आज समाज की दिशा व दशा मध्यवर्ग तय कर रहा है। लेकिन उसके मूल्यों में कितना बदलाव आया है? अगर सिर्फ स्त्रियों की बात करें तो लोगों में यह चेतना तो जरूर आई कि बेटियों को पढाएं, क्योंकि शिक्षा व करियर आज सबकी जरूरत है। लेकिन आज भी लडकी के लिए उसका घर-परिवार ही पहली प्राथमिकता है। बेटियां वही नौकरियां करें, जिनमें उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां प्रभावित न हों। हां, घूंघट और पर्देदारी कम हुई है और बाहरी दुनिया में उनका दखल बढा है, मगर ऑनर किलिंग, एसिड अटैक जैसी घटनाएं जताती हैं कि मेकअप करने से किसी का बाहरी चेहरा भले बदल जाए, वास्तविक शक्ल वही रहती है। उसे बदलने में अभी कई पीढियां लग सकती हैं।


सुविधा का बदलाव

बदलाव को सहज व सकारात्मक ढंग से लिया जाना चाहिए, कहती हैं, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ काउंसलिंग की चेयरपर्सन डॉ. वसंता आर. पत्रे। वह कहती हैं, हां, रिश्ते बदले हैं। उनमें भरोसा कम हुआ है, कंट्रोल करने की प्रवृत्ति बढी है, लेकिन यह स्वाभाविक है। शादी जैसी संस्था आज की तेज-रफ्तार जिंदगी से मेल नहीं खा रही है, क्योंकि जीवनशैली के हिसाब से इसमें कोई बडा बदलाव नहीं हो पाया। लिव-इन जैसे संबंधों का एक बडा कारण यही है कि शादी पुरानी पडने लगी है। लोग सुविधा के रिश्ते की ओर बढ रहे हैं। नैतिकता के आधार पर इसकी आलोचना नहीं की जा सकती, क्योंकि बदलाव के क्रम में कई चीजें बदलती हैं-टूटती हैं और बनती हैं। यह एक संक्रमण-काल है। सकारात्मक ढंग से सोचें तो बुरी शादी में जबरन रहने से अच्छा है लिव-इन में रहना। इसका नकारात्मक पक्ष है कि इसमें बच्चों की जिम्मेदारी स्पष्ट नहीं है। एक-दूसरे से अपेक्षाएं भी बढ जाती हैं और चूंकि इस व्यवस्था में टिकने की कोई शर्र्ते नहीं हैं तो अलग होने में भी देर नहीं लगती।


संख्या व गुणवत्ता का द्वंद्व

बदलाव की बात करें तो शिक्षा क्षेत्र की बात करना लाजिमी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज से अवकाश-प्राप्त प्रधानाचार्य डॉ. एस.सी. शर्मा कहते हैं, मैं शिक्षा में आए बदलावों का साक्षी रहा हूं। मैंने खुद इसके ढांचे को गिरते देखा। अपने समय में मैंने कभी यह महसूस नहीं किया कि कॉलेज जाकर मैंने कुछ खोया है। लेकिन अध्यापन के दौरान मैंने टीचर्स-स्टूडेंट्स के संबंध बदलते देखे, टीचर्स और शिक्षा की गुणवत्ता को घटते देखा है। मैं मानता हूं कि बहुत सारी चीजें बेहतर हुई हैं। लेकिन इस बदलाव में संख्या ज्यादा है-गुणवत्ता कम। पहले सभी सरकारी स्कूल्स में पढ कर बेहतर कर लेते थे, फिर प्राइवेट स्कूल्स की बाढ आई और सरकारी स्कूल्स की हालत बिगडती गई। वहां कभी शिक्षक नहीं होते तो कभी बच्चों के लिए जरूरी चीजें। प्राइवेट स्कूल्स का रुतबा बढ गया। आज बच्चा बिना ट्यूशन के पढ ही नहीं सकता, यह कैसा बदलाव है भाई?


बदलाव तो आया है..। जीवन के हर स्तर पर हम बदले हैं, मगर बदलाव सही और गलत दोनों दिशाओं में समान रूप से हुआ है। कहते हैं, विकास की कीमत चुकानी पडती है और बदलाव कई बार खुशी देता है तो कभी इससे निराशा भी होती है। मगर यह भी सच है कि कोई भी समाज रातों-रात नहीं बदल सकता। बाहरी बदलाव जितनी जल्दी होता है, मानसिक बदलाव उतनी तेजी से नहीं हो पाता। भारतीय समाज अभी इस आंतरिक बदलाव के रास्ते पर है, जहां से उसे इसकी दिशा तय करनी है।


सिनेमाई दुनिया में आई क्रांति

कहते हैं सिनेमा समाज का दर्पण होता है। समय के हर बदलाव को सिनेमा में देखा जा सकता है। पहले नायिकाएं प्रेमिका, पत्‍‌नी और मां बनकर ख्ाुश थीं, मगर आज वे लीड रोल में आ रही हैं। तकनीकी रूप से फिल्में बहुत बेहतर हुई हैं। आज भारतीय फिल्में ऑस्कर की होड में हैं। बॉलीवुड में रोजगार की संभावनाएं बढ गई हैं।

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