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बस एक शाम की ही बात है फिर ऐतराज कैसा ?

Jagran Sakhi
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कभी शाम को बालकनी  में बैठ कर यूं ही पेड-पौधों की हरियाली निहारना, घोंसले में लौटते पक्षियों के झुंड देखना, पार्क में खेलते बच्चों की बातें सुनना..ऐसी छोटी-छोटी बेमतलब की बातें भी हमारे लिए बहुत मायने रखती हैं। जरा याद कीजिए कि ऐसा बेफिक्र और सुकून भरा लमहा आपके जीवन में आखिरी  बार कब आया था? पिछले संडे  को..छह महीने पहले..या याद नहीं आ रहा? याद आए भी तो कैसे? जब जिंदगी में फुर्सत होगी तभी तो ऐसे फुर्सत भरे पल याद आएंगे। यहां जिंदगी की रफ्तार  इतनी तेज है कि हम सब उसी के साथ तिनकों की तरह बहते चले जा रहे हैं। यह रफ्तार  हमें कहां ले जाएगी, हमें खुद नहीं मालूम। एक पल भी रुके बिना चलते-चले जा रहे हैं, क्योंकि चलते रहना हमारी आदत है। रुकना या सुस्ताना हमें वक्त की बर्बादी लगता है, पर कभी-कभी अपने लिए फुर्सत की एक शाम चुरा लेना सेहत के लिए अच्छा होता है। इस संदर्भ में काशीनाथ सिंह की चर्चित कहानी सुख की बरबस याद आ जाती है। जिसके नायक भोला बाबू अपनी कामकाजी दुनिया में इतने व्यस्त रहते थे कि वर्षो से उन्होंने सूर्यास्त नहीं देखा था। एक रोज गलती से शाम को जल्दी घर पहुंच गए तो आंगन में उन्हें डूबता हुआ सूरज दिखा, जिसे देखकर वह ख्ाुशी  के मारे चीख पडे और बच्चों को बुलाकर उन्हें इस तरह सूरज दिखाने लगे, जैसे उन्हें कोई अद्भुत चीज देखने को मिली हो। उनके बच्चे अपने पिता की इस हरकत पर हैरान थे, उन्हें ऐसा लगा कि पिता जी ने अपना दिमागी संतुलन खो दिया है, क्योंकि बच्चों के लिए तो यह आम बात थी। कहानी का लब्बोलुआब यही है कि दुनियादारी की भीड में हम कहीं खो न जाएं, वरना हमारी भी हालत भोला बाबू जैसी हो जाएगी।

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छोटी बातों में बडी खुशियां

फुर्सत के छोटे-छोटे पलों में ही जिंदगी की बडी ख्ाुशियां छिपी होती हैं, पर अफसोस कि हम उन्हें पहचानने या ढूंढने की कोशिश नहीं करते। इस संबंध में लाइफस्टाइल मैनेजमेंट एक्सपर्ट रचना खन्ना सिंह कहती हैं, आज हमारे लिए अपनी लाइफस्टाइल  को पूरी तरह बदल पाना संभव नहीं है, पर कुछ ऐसी छोटी-छोटी बातें हैं, जिन्हें अपनी आदत में शामिल करके आप खुद  को तनावमुक्त महसूस कर सकते हैं। मसलन, चाहे कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो ऑफिस में कम से कम तीन घंटे के अंतराल पर एक बार अपनी सीट से उठकर बाहर की खुली  हवा में 5  मिनट टहलें। यकीन मानिए, इससे आपका सारा तनाव दूर हो जाएगा और आप नई ऊर्जा के साथ ज्यादा अच्छे ढंग से काम कर पाएंगे।


जुनून परफेक्शन का

हम सब कुछ परफेक्ट  चाहते हैं। ऑफिस में ख्ाुद को बेहतर साबित करने के लिए दिन-रात एक कर देना, घर के हर कोने को किसी इंटीरियर मैगजीन की तसवीरों की तरह सुंदर और सुव्यवस्थित बनाना, हर वीकेंड घर पर पार्टी आयोजित करना..ढेर सारे फोन कॉल्स, एसएमएस/ ई-मेल्स के जवाब देना, फेसबुक  पर स्टेटस और फोटो अपडेट  करना..न जाने ऐसे ही कितने जरूरी (?) कार्यो की कभी ख्ात्म न होने वाली लिस्ट हमारे पास होती है। अगर उनमें से एक भी काम अधूरा छूट जाए तो बहुत झल्लाहट होती है। दरअसल हम अति व्यवस्थित रहना चाहते हैं..पर सब कुछ अच्छी तरह सेट होने के बावजूद हमारा मन इतना अपसेट क्यों रहता है? सुविधाओं, साधनों और संबंधों को व्यवस्थित करते हुए हमारा शरीर और दिमाग इस कदर थक चुका होता है कि हम उनका आनंद उठाने लायक नहीं बचते।

सच में जिंदगी इम्तिहान लेती है !!


छूटे न सहजता का साथ

हमारे जीवन को आरामदेह बनाने के लिए आज टेक्नोलॉजी ने हमें ढेर सारी सुविधाएं दी हैं, पर अकसर हम यह भूल जाते हैं कि ये साधन हमारे लिए बनाए गए हैं, हम उन साधनों के लिए नहीं बने। भौतिक सुख-सुविधाओं पर ज्यादा निर्भरता हमें उनका गुलाम बना देती है। फिर ऐसी चीजें आराम के बजाय तकलीफ देने लगती हैं। प्रोफेशनल लाइफ के दबाव वैसे ही बहुत ज्यादा  हैं। इसलिए कम से कम पर्सनल लाइफ को सहज ढंग से चलने देना चाहिए। कुछ लोग अपनी पर्सनल लाइफ में भी वर्कोहॉलिक की तरह हमेशा ऐसे कार्यो में व्यस्त रहते हैं, जिन्हें आसनी से नजरअंदाज किया जा सकता है। कुछ लोग को बिजी सिंड्रोम  की समस्या होती है। यह शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत नुकसानदेह है। इससे बाहर निकलने की कोशिश करें। अगर आपके पास रोजाना 100  ई-मेल और 70  एसएमएस  आते हैं तो सभी के जवाब देना जरूरी नहीं है। तबीयत ठीक न होने पर भी 20  किलोमीटर ड्राइव करके किसी पार्टी में जाने का क्या मतलब? बच्चे की बर्थडे  पार्टी से लेकर वीकेंड-आउटिंग तक के हर फोटो को फेसबुक  पर अपडेट  करना क्यों जरूरी है? अगर पिछले छह महीने से आप अपने दोस्तों को डिनर पर नहीं बुला पाए तो इसके लिए आपके मन में कोई गिल्ट  फीलिंग  नहीं होनी चाहिए। आख्िार ऐसे सभी कार्यो से मन का सुकून  जुडा है, पर जब ऐसी गतिविधियों से आपको तकलीफ होने लगे तो फिर इनका क्या फायदा? अगर आपका काम क्रिएटिव  फील्ड से जुडा है तो आपके लिए मन की शांति की कीमत बहुत ज्यादा है और इसकी भरपाई पैसों से नहीं की जा सकती। इस संबंध में साहित्यकार पद्मा सचदेव कहती हैं, अत्यधिक व्यवस्थित घर मुझे होटल जैसा लगता है और ऐसे माहौल में मेरे लिए लिखना संभव नहीं हो पाता। अपना घर सजाने-संवारने का शौक मुझे भी है, पर आराम मेरे लिए पहली प्राथमिकता है। मुझे अपने बेड पर लिखने-पढने की आदत है, वहीं आसपास किताबें, दवाएं, पानी की सुराही जैसी कई जरूरी चीजें रखी होती हैं। दूसरों को मेरे घर का इंटीरियर पसंद है या नहीं, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पडता, मेरे लिए मन का सुकून सबसे जरूरी है। उसके बिना लिखना संभव नहीं हो पाता।


ऐसी भी क्या जल्दी है

आज जिंदगी की रफ्तार इतनी तेज है कि चारों ओर भागमभाग मची रहती है। यह रफ्तार इंसान को मशीन बना रही है, पर याद रखें कि जिंदगी 100  मीटर की रेस नहीं, मैराथन है। जिसमें आपको लंबे समय तक मजबूती के साथ तक चलना है। अगर शुरुआत में ही आप बहुत तेज दौडेंगे तो आधे रास्ते तक आपकी सारी ऊर्जा खत्म  हो जाएगी। इसलिए अपनी ऊर्जा बचाते हुए धीरे और सुरक्षित चलें। यह अपने आप में बहुत अच्छा इन्वेस्टमेंट  है, जिसका दूरगामी फायदा बाद में नजर आता है।


लुत्फ उठाएं सफर का

इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. विचित्रा  दर्गन  आनंद कहती हैं, जब आप ख्ाुद  को भी थोडा समय देते हुए रिलैक्स्ड  मूड में काम करेंगे तो इससे आपका मन शांत रहेगा और कार्यक्षमता भी अपने आप बढने लगेगी। चाहे कोई भी काम हो तनाव और हडबडी से कभी भी अच्छे रिजल्ट की उम्मीद नहीं की जा सकती। मान लीजिए दो लोग एक साथ पहाड की चढाई कर रहे हैं। एक बेहद तेज गति से आगे बढता है। वह अपने साथी से कुछ घंटे पहले मंजिल पाने में कामयाब हो जाता है, लेकिन वहां पहुंचते ही थकान की वजह से बेहोश हो जाता है। जबकि दूसरा व्यक्ति रास्ते के प्राकृतिक दृश्यों का पूरा लुत्फ उठाते और ताजी हवा में गहरी सांसें लेते हुए आराम से ऊपर चढता है। वहां पहुंचने के बाद उसे कोई थकान महसूस नहीं होती। वह अपने पर्वतारोहण के हर पल को जी भरके एंजॉय करता है। हमारी जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है। इसलिए केवल मंजिल तक पहुंचने की जल्दबाजी न दिखाएं, बल्कि धीरे चलते हुए इस सुहाने सफर का पूरा लुत्फ उठाएं। बहुत तेज गति हमेशा सफलता की गारंटी नहीं होती, कई बार इससे दुर्घटना भी हो जाती है। सडकों पर स्पीड ब्रेकर भी इसीलिए बनाए जाते हैं। हमारी जिंदगी के रास्ते में भी छुट्टियों, त्योहार..आदि के रूप में कई स्पीड ब्रेकर आते हैं, पर हम उनकी परवाह किए बिना तेजी से आगे बढ जाते हैं। फिर दुर्घटना की तरह हाइपरटेंशन, डिप्रेशन, एंग्जायटी और हाई ब्लडप्रेशर जैसी स्वास्थ्य समस्याएं घेरने लगती हैं। अमेरिकन जर्नल ऑफ कार्डियोलॉजी द्वारा किए गए रिसर्च के अनुसार तनावग्रस्त लोगों में हार्ट अटैक का ख्ातरा  27  प्रतिशत तक बढ जाता है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि एक दिन में पांच सिगरेट पीने से व्यक्ति को जितना नुकसान नहीं होता, उससे कहीं ज्यादा नुकसान तनाव से होता है।


मन रे तू काहे न धीर धरे

गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने लोगों को बेहद अधीर बना दिया है। इंतजार किसी को पसंद नहीं। आज हर व्यक्ति सब कुछ सबसे ज्यादा  और सबसे पहले हासिल कर लेना चाहता है। ऐसी बेचैनी काम संवारने के बजाय उसे बिगाड देती है। इतना ही नहीं व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा असर पडता है। चाहे प्रोफेशनल लाइफ हो या पर्सनल हर जगह ऐसी ही जल्दबाजी है, पर याद रखें कि किसी भी बडे प्रोजेक्ट को अच्छी तरह पूरा करने के लिए धैर्य की जरूरत होती है। आप चाहे कितनी ही मेहनत क्यों न करें, लेकिन परिणाम के लिए आपको निश्चित समय तक इंतजार करना ही पडेगा। इस संदर्भ में सोलहवीं शताब्दी के कवि वृंद का यह दोहा आज प्रासंगिक लगता है- कारज धीरे होत है काहे होत अधीर समय पाए तरुवर फलै केत कि सींचो नीर। कहने का आशय यह है कि कोई भी काम अपने निश्चित समय पर ही पूरा होता है। हम चाहे कितनी भी सिंचाई क्यों न करें, लेकिन निश्चित समय के बाद ही पेड पर फल लगते हैं। हमें सब्र करना सीखना होगा क्योंकि सब्र का फल मीठा होता है।


खतरनाक है भेडचाल

आज लोगों से उनका सुकून  छीनने के लिए अंधानुकरण और दिखावे की प्रवृत्ति भी काफी हद तक जिम्मेदार है। अपनी जरूरतों, प्राथमिकताओं और क्षमताओं को ठीक से जाने-समझे बगैर लोग अकसर दूसरों की देखा-देखी में कई ऐसे निर्णय ले लेते हैं, जो बाद में उनके लिए सही साबित नहीं होते। इसलिए कोई भी फैसला लेने से पहले जीवन-स्थितियों और क्षमताओं का ईमानदारी से मूल्यांकन जरूरी है। उसके बाद धैर्यपूर्वक सोच-विचार करके ही कोई निर्णय लेना चाहिए। अपनी प्राथमिकताओं को लेकर अगर आपकी सोच स्पष्ट होगी तो तनाव अपने आप कम हो जाएगा।

उफ..उफ.. ये मिर्चीले रिश्ते


और भी हैं रंग जिंदगी के

जीवन में आगे बढने के लिए अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना अच्छी बात है। कामयाबी, धन और शोहरत से हमें ख्ाुशी  जरूर मिलती है, पर वह ज्यादा  समय तक नहीं टिकती। थोडा वक्त  बीत जाने के बाद जीवन में ख्ालीपन  सा महसूस होने लगता है। इसके लिए सबसे पहले अपने प्रोफेशन से अलग हटकर कुछ ऐसी चीजों के बारे में सोचें, जो आपको सबसे ज्यादा  खुशी देती हैं। फिर अपनी ऐसी रुचि के लिए थोडा वक्त जरूर निकालें। जहां तक संभव हो अपने आसपास रहने वाले जरूरतमंदों की सहायता करें। उनके उदास चेहरे पर खिलने वाली मुस्कान आपको सच्ची ख्ाुशी देगी।


थोडी सी जमीं, थोडा आसमां

जब व्यस्तता की बात चलती है तो फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा का वह दृश्य बरबस याद आता है, जिसमें वर्कोहॉलिक  रितिक  रौशन कहता है कि मेरी जिंदगी दो बॉक्सेज  (स्टूडियो अपार्टमेंट  और ऑफिस के क्यूबिकल)  के बीच सिमट गई है..। ऐसे में उसका दोस्त  उसे आगाह करता है कि अगर यही हाल रहा तो तीसरे बॉक्स (कॉफिन) तक पहुंचने में ज्यादा  देर नहीं लगेगी। यह हमारे जीवन की क्रूर सच्चाई है कि हमें ख्ाुद  को घर और ऑफिस की चारदीवारी में कैद नहीं करना चाहिए। बाहर खुला आसमां आपका इंतजार कर रहा है। इसलिए फुर्सत के कुछ पल तलाश कर कम से कम साल में एक बार अपने काम से छोटा सा ब्रेक जरूर लेना चाहिए। ढेरों परेशानियों के बावजूद हमारी जिंदगी ख्ाुशनुमा बन सकती है..बस, जरूरत है तो सिर्फ अति व्यस्त दिनचर्या में से खुशियों  के कुल पल चुरा कर उन्हें सहेजने की।

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धन और शोहरत , जुनून

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