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नन्ही सी इक नदी
जानिबे-मंजिल चली
राह में मिले पत्थर-चट्टान
टकराती-संभलती आगे बढी
साल दर साल गुजरते रहे
पत्थर घिसे, झुके, टूट गए
छोटी सी नदी के आगे
हौसले उनके पस्त हुए
नन्ही सी इक नदी
बेखौफ फिर बढ चली..।
नन्ही सी यह नदी अपनी राह खुद बनाने को आतुर है, चाहे इसके लिए पत्थरों-चट्टानों से टकराना पडे और पहाडों से गुजरना पडे..।
वर्ष 2012 में ऐसा बहुत कुछ हुआ, जिसने इंसानियत से भरोसा उठा दिया, लेकिन भरोसे की दीवार गिरने के बाद जो आक्रोश जगा और जिस तरह युवाओं व महिलाओं ने एक शांतिपूर्ण-सकारात्मक आंदोलन को जन्म दिया, उसने कई उम्मीदें बंधाई हैं। यह युवाओं का नया चेहरा है और युवा ताकत ही किसी आंदोलन को मंजिल तक पहुंचा सकती है।
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इसके बावजूद स्थिति भयावह है। लोकतांत्रिक देश में यदि लडकियों को इतनी भी आजादी न हो कि वे सडकों पर बेखौफ चल सकें, सुरक्षित सफर कर सकें, अपना म्यूजिकल बैंड बना सकें, घरों-दफ्तरों में सुरक्षित महसूस कर सकें, एक इंसान की तरह सम्मानपूर्ण जिंदगी जी सकें तो ऐसे देश को अपने मूल्यों और संस्कृति पर पुनर्विचार की जरूरत है। बदलाव की जरूरत किस-किस स्तर पर है, इसे समझने से पहले जानें कि स्त्रियों पर इन हमलों की जडें कहां छिपी हैं।
अपराध का कोई चेहरा नहीं
दिल्ली स्थित मूलचंद मेडिसिटी के सलाहकार मनोचिकित्सक डॉ. जितेंद्र नागपाल कहते हैं, अपराधी का कोई अलग चेहरा नहीं होता। वह भीड का ही हिस्सा होता है। वह कहीं भी और कोई भी हो सकता है। कलीग या मंगेतर, सहयात्री या साथ चलता राहगीर..। वह कभी वेटर, कभी इलेक्ट्रीशियन, कभी वॉचमैन बन कर हमला कर सकता है और अंकल, पडोसी या ब्वॉयफ्रेंड बन कर भरोसे का कत्ल कर सकता है। ऐसे लोग समाज के दो वर्गो से आ रहे हैं। वे या तो पावरफुल हैं या फिर गरीब, बेरोजगार और कुंठित। अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, नशाखोरी और पुरुषोचित अहं जैसे कारण मिल कर एक साइकोपैथिक बिहेवियर को अंजाम देते हैं। बलात्कार या छेडखानी के पीछे सेक्स की इच्छा के साथ ही सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विकार भी जुडे होते हैं। संभव है कि ऐसे अपराधी बचपन में चाइल्ड अब्यूज, गरीबी, झगडों और नशे जैसी स्थितियों से गुजरे हों। भावनात्मक असुंतलन और बदले की भावना इन्हें अपराध में धकेलती है। स्त्री को सेक्स ऑब्जेक्ट माना जाता है और हमला उसी पर किया जाता है जिसे कमजोर या अकेला समझा जाता है। यही वजह है कि स्त्री उनका निशाना बनती है।
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पावर का है खेल
कई बार सिर्फ मजा लेने के लिए भी अपराध किए जाते हैं। लेकिन खुद से कमजोर समझने वाले व्यक्ति का विरोध देख अपराधी का गुस्सा बढ जाता है। इसकी यह हिम्मत कि मना करे..अब देखो इसका क्या हाल होता है.., यह भाव अपराध की मंशा को और साफ कर देता है, कहती हैं दिल्ली की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट गगनदीप कौर। वह कहती हैं, समस्या पावर से भी जुडी है। स्त्री के प्रति समाज के एक खास वर्ग की मानसिकता नहीं बदल पा रही है। खाप पंचायतों में फतवे कौन दे रहा है? ये सभी पुरुष हैं, लगभग अशिक्षित हैं और संस्कृति का सारा ठेका इन्होंने अपने सिर पर ले रखा है। खाप में स्त्रियां नहीं हैं। छेडखानी, यौन अपराधों और अश्लील फब्तियों के पीछे भी पावर गेम है। अपराध के पीछे स्त्री को कंट्रोल करने की इच्छा भी होती है।
सामाजिक विषमताएं
दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर नीलिका मेहरोत्रा कहती हैं, निम्न वर्ग भी हिंसा का शिकार है। मगर उसके पास विरोध के लिए न समय है, न यह समझ है कि विरोध कैसे करे। वह हिंसा के बीच पल-बढ रहा है। माचो मैन, रीअल मैन को जिस तरह महिमामंडित किया जाता है, उससे मर्दवादी सोच को बल मिलता है। हिंसा को लेकर चल रहे अध्ययन बताते हैं कि अपराधों में वे लोग ज्यादा लिप्त हैं, जिन्हें कभी न कभी सताया गया है। पारिवारिक नियंत्रण भी एक सीमा के बाद काम नहीं करता। ठेके या अड्डे पर खडे होकर शराब पीना, लडकियों पर छींटाकशी करना आम दृश्य हैं। फिल्में, पीअर ग्रुप, समाज के अन्य लोग इस मर्दवादी सोच में इजाफा ही करते हैं। तुम पुरुष हो-गुस्से, हिंसा की भावना तुम्हारे भीतर होनी ही चाहिए और जिसके भीतर नहीं है, वह जनाना यानी स्त्री है, यही सीख हर स्तर पर मिल रही है।
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टीनएजर्स की परवरिश
दिल्ली सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री किरण वालिया ने पिछले दिनों एक बयान में कहा,अब समय है कि बेटों की परवरिश के तरीके बदले जाएं। उन्हें बताया जाए कि माचो का अर्थ सुसंस्कृत होना और महिलाओं से बराबरी का व्यवहार करना है। कानून के जरिये स्थिति को एक हद तक बदला जा सकता है, लेकिन समस्या को जड से खत्म नहीं किया जा सकता।
संस्कारों और मूल्यों की पहली पाठशाला घर है। बेटे को पता होना चाहिए कि किसी स्त्री के पैर छूने या उसे राखी बांधने भर से उसका सम्मान नहीं होता। दूसरी ओर लडकी को पराया धन या घर की इज्जत मानने की परंपरा भी खत्म होनी चाहिए। सबसे बडी बात है कि पिता आदर्श प्रस्तुत करे। यदि वह पत्नी का सम्मान करेगा तो उसका बेटा भी अपने जीवन में आने वाली स्त्रियों का सम्मान करेगा।
शैक्षिक संस्थाओं का दायित्व
परिवार के बाद शैक्षिक संस्थान आते हैं। दिल्ली के एल्कॉन इंटरनेशनल स्कूल के प्रधानाचार्य अशोक पांडे कहते हैं, स्कूलों में नैतिक शिक्षा भले ही अलग विषय के रूप में न हो, लेकिन मूल्य और संस्कार एक सतत प्रक्रिया हैं। विडंबना है कि पिछले 20 वर्षो से इसी को लेकर बहस चल रही है कि वैल्यू एजुकेशन है क्या? इसके मायने क्या हैं, मेथडोलॉजी क्या है। वैल्यूज की वैल्यू को ही लेकर हम उलझे हुए हैं। लेकिन मॉरल एजुकेशन स्कूलों में अलग-अलग स्तरों पर दी जा रही है। लगभग हर स्कूल में मॉर्निग असेंबली से ही इसकी शुरुआत हो जाती है। हर दिन अलग थीम होती है। जैसे- पर्यावरण सुरक्षा, भाईचारा, विश्वबंधुत्व, केयरिंग, शेयरिंग..। क्लास रूम से लेकर खेल के मैदान तक ये मूल्य दिखाई देते हैं। छात्रों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रोजेक्ट्स दिए जाते हैं। रोड रेज, स्ट्रीट चिल्ड्रेन की समस्याओं, महिला सुरक्षा से जुडे मुद्दों को लेकर ग्रुप प्रोजेक्ट्स होते हैं। आजकल वर्चुअल वर्ल्ड में छात्र काफी ऐक्टिव हैं। सोशल साइट्स में वे कैसे अपनी पहचान गुप्त रखें, कैसे अपराधियों से सुरक्षित रहें, ऐसे तमाम विषयों पर भी हम एक्सपर्ट्स को बुला कर वर्कशॉप कराते हैं। मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, एनजीओ के माध्यम से भी ट्रेनिंग प्रोग्राम्स कराए जाते हैं। इसे पीअर लीडरशिप कहा जाता है। इसमें 2-3 छात्रों को चुना जाता है। उन्हें एंगर मैनेजमेंट, फेमिली बॉन्डिंग, संतुलित व्यवहार जैसे विषयों पर ट्रेनिंग दी जाती है। फिर ये छात्र अपने अन्य सहपाठियों को ट्रेनिंग देते हैं। इससे बच्चों में टीम भावना पैदा होती है। कहने का अर्थ यही है कि नैतिक मूल्य निरंतर प्रक्रिया के तहत किसी न किसी किसी रूप में दिए जा रहे हैं।
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सांस्कृतिक प्रदूषण से बचें
मनोरंजन माध्यमों की भी जिम्मेदारी है कि वे समाज को सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाएं। आइटम नंबर्स, विज्ञापनों, हास्य व मनोरंजन के नाम पर यह छूट क्यों मिले कि जो जी करे-दिखाएं। पिछले दिनों भोजपुरी गायिका शारदा सिन्हा ने एक फिल्मी गीत की किसी पंक्ति को गाने से इसलिए मना कर दिया कि वह उन्हें अश्लील लग रही थी। ऐसा साहस अन्य गायक, गीतकार-संगीतकार और ऐक्टर्स क्यों नहीं दिखा सकते? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अश्लील मनोरंजन तो जंगल राज को ही बढावा देगा।
कानून का खौफ जरूरी
कानून का खौफ जरूरी है। कुछ भी कर लें-बच जाएंगे, यह सोच अपराधों में इजाफा कर रही है। फिलहाल 18 वर्ष से नीचे के किशोर को जुवेनाइनल माना जाए या नहीं, इसी को लेकर सर्वाधिक बहस छिडी हुई है। दिल्ली हाईकोर्ट की एडवोकेट रेखा अग्रवाल कहती हैं, 18 वर्ष से नीचे के युवक को जुवेनाइल कहा जाता है, लेकिन यह कानून वर्षो पहले बना था। तब से वक्त बहुत बदल चुका है। किशोरों का एक्सपोजर बढा है। जरूरत से ज्यादा और समय से पहले सूचनाएं मिल रही हैं। हम जुवेनाइल की उम्र 16 वर्ष करने की मांग नहीं कर रहे, लेकिन उसे सिर्फ इसलिए भी माफ नहीं किया जाना चाहिए कि वह माइनर है। अपराध की गंभीरता को देखते हुए तय हो कि क्या उस बच्चे द्वारा किया गया अपराध रेयरेस्ट ऑफ द रेयर की श्रेणी में आता है! अगर वह सुरक्षित है और कानून उसका कुछ नहीं बिगाड सकता तो यह समाज के लिए बहुत भयावह स्थिति का संकेत है।
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एक नजर समस्याओं पर
स्त्री-अस्मिता का सवाल कई स्तरों पर सुधार की मांग करता है। जैसे-
1. महिला पुलिस : महिला पुलिस हो तो स्त्रियां रिपोर्ट दर्ज कराने में सहज रहती हैं, लेकिन पुलिस विभाग में महिलाएं नदारद हैं। दिल्ली में महज 7 फीसदी महिला अधिकारी हैं। वैसे यहां पुलिस फोर्स कम नहीं है, लेकिन एक तिहाई ही वास्तविक पुलिसिंग कर रही है, बाकी वीआइपी सुरक्षा में तैनात रहती है।
2. लचर ट्रांसपोर्ट व्यवस्था : पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल महिलाएं अधिक करती हैं, लेकिन राजधानी दिल्ली तक के ट्रांसपोर्ट सिस्टम में कई खामियां हैं, बाकी देश की बात क्या करें! छोटी-छोटी दूरियां तय करना भी महिलाओं के लिए जोखिम भरा है।
3. नागरिक सुविधाएं : हमारे शहर न्यूनतम नागरिक सुविधाओं से भी वंचित हैं। सुनसान सडकें, खराब स्ट्रीट लाइट्स, सीसीटीवी कैमरे न होना, सार्वजनिक शौचालयों की बुरी स्थिति भी अपराधों को बढावा देती है।
4. हिंसा की स्वीकार्यता : घरेलू हिंसा, गालियों, चुटकुलों, भद्दे मजाक और मौखिक हिंसा को हमारे समाज में अपराध माना ही नहीं जाता। न तो इनके खिलाफ मामला दर्ज होता है, न कोई इनका विरोध करने की जहमत उठाता है।
5. संवेदनहीनता : लोग खुद में ही इतने मसरूफ हैं कि दूसरे की तकलीफ से कट गए हैं। कई घटनाएं रोज आंखों के सामने होती हैं लेकिन हमें क्या और पचडे में क्यों पडें जैसी मानसिकता चुप रहने को प्रेरित करती है। स्त्रियों से संबंधित खबरों में भी गंभीरता कम और सनसनी पैदा करने का भाव ज्यादा है।
6. जागरूकता की कमी : एसोचैम के एक सर्वे के मुताबिक 88त्न महिलाओं को कानूनों की जानकारी नहीं है। यह कामकाजी स्त्रियों का सच है। भारत के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर का कहना है कि महिला-शिक्षा जरूरी है, खास तौर पर उन्हें कानूनी शिक्षा जरूर देनी चाहिए।
7. परिवारों का ढांचा : परिवारों का ढांचा पितृसत्तात्मक है। हम बेटियों की सुरक्षा को लेकर सजग रहते हैं और चाहते हैं कि बेटियां शाम 7-8 बजे से पहले घर लौट आएं, लेकिन ऐसी चिंता बेटों को लेकर नहीं होती। अगर वे रात 8-9 बजे तक बाहर हैं तो इसे माता-पिता भी सामान्य भाव से लेते हैं। बेटों को यह अतिरिक्त छूट भी हानिकारक है।
8. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी : जब नेता स्त्रियों को देर रात तक बाहर न रहने की हिदायत दें, उनकी ड्रेस को लेकर वक्तव्य दें, उन्हें सुविधाओं (मोबाइल या कंप्यूटर) से वंचित करें तो जाहिर है महिला-सुरक्षा के सवालों पर ईमानदार इच्छा का अभाव है।
तसवीर का दूसरा रुख
कुछ स्तरों पर बदलाव की शुरुआत हो चुकी है और इसका नमूना है जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट। इसमें महिला सुरक्षा को लेकर कई सकारात्मक पहलू जोडे गए हैं। समय है कि स्त्रियों का मनोबल बढाने वाली बातों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। क्या यह गर्व की बात नहीं है कि शैक्षिक परीक्षाओं में लडकियां लगातार अव्वल आ रही हैं? क्या 20-25 वर्ष पहले इस बात की कल्पना की जा सकती थी कि छोटे-छोटे राज्यों से लडकियां दिल्ली या मुंबई में पढने या नौकरी करने आएं या उच्चशिक्षा के लिए विदेश जाएं? आज लडकियां बडे शहरों में अकेले रह रही हैं, अकेले सफर कर रही हैं, हर फील्ड में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। वे हमलों के भय से घरों में नहीं छुप रहीं। माता-पिता का रवैया भी बदला है। शिक्षा का आंकडा बढा है और कन्या भ्रूण हत्याओं का ग्राफ घटा है। ऐसा पहली बार हुआ, जब दिल्ली में यौन अपराधों के खिलाफ वे महिलाएं भी सामने आई, जिन्होंने कभी इनका सामना किया था। यह बहुत बडा बदलाव है। घर से लेकर बाहर तक हर स्तर पर सुधार की जरूरत है। बदलाव का सफर जारी है। छोटी-छोटी सफलताएं इस संघर्ष-यात्रा के सुखद पडावों की तरह हैं। मगर ये पडाव सुस्ताने के लिए नहीं, अपनी ऊर्जा को संजो कर तेजी से आगे बढने के लिए हैं।
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