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मेरा जूता है जापानी
ये पतलून इंग्लिस्तानी
सर पे लाल टोपी रूसी
फिर भी दिल है हिंदुस्तानी..
शैलेंद्र का लिखा और मुकेश का गाया यह गीत सन 1955 में राजकपूर की फिल्म श्री 420 में आया था। यह वह दौर था जब रूस से भारत की मित्रता परवान चढ रही थी। दोनों देशों के आम जन को सांस्कृतिक रूप से एक-दूसरे के निकट लाने के प्रयास चल रहे थे। तब कूटनीतिक प्रयास में इस गीत ने भी बडी भूमिका निभाई थी। शायद इसका ही असर था जो कूटनीतिक प्रयासों का असर सांस्कृतिक अहद से गुजरते हुए कब भावनात्मक रूप में तब्दील हो गया, पता ही नहीं चला। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि अभी तक सडकों पर आते-जाते ये बोल आपके कानों में पड सकते हैं और हो सकता है कि आप खुद इसे गुनगुनाने भी लगें। और क्यों न गुनगुनाएं, तब यह बात सिर्फ बाहरी यानी पहनावे की थी। जूता, पतलून, टोपी.. बस यहीं तक सीमित थी, लेकिन अब तो यह हमारी जेहनी हकीकत बन चुकी है।
एक समय था जब देश के भीतर ही लोग एक-दूसरे प्रांत को भी ठीक से नहीं जानते थे। तमाम संस्कृतियों और राष्ट्रीयताओं का समुच्चय भारत जरूर है और इन्हें आपस में जोडने के प्रयास भी समय-समय पर होते रहे हैं। इसके बावजूद एक संस्कृति में रचे-बसे व्यक्ति के लिए दूसरी संस्कृति को अपनाना और उसकी खूबियों को स्वीकार कर पाना बहुत मुश्किल बात लगती थी। इसकी बहुत बडी वजह संपर्क और संचार के साधनों की कमी भी थी। लेकिन जैसे-जैसे ये साधन बढे और दूसरे क्षेत्रों, यहां तक कि देशों से भी लोगों के संपर्क की जरूरतें बढीं, दूरियां अपने-आप घटती चली गई। इसका लाभ न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया को मिला है। इन लाभों का जिक्र अगर किया जाए तो इसमें सीमाओं का टूटना सबसे पहली बात होगी। ऐसा नहीं है कि राज्यों या देशों की राजनीतिक-प्रशासनिक सीमाएं टूट गई हों, या कि धर्मो-संप्रदायों की परंपराओं-रिवाजों की सीमाएं टूट गई हों, या फिर भाषाओं में व्याकरण की सीमाएं टूट गई हों..। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। ये बाहरी सीमाएं न तो टूटी हैं और न निकट भविष्य में इनके टूटने की कोई संभावना ही दिखती है। लेकिन इतना जरूर हुआ है कि इन बाहरी सीमाओं के चलते हमारे भीतर जो सीमाएं बन गई थीं और जो हमें एक मनुष्य होने के नाते दूसरे मनुष्य से जुडने से रोकती थीं, वे टूट गई हैं। अपने-अपने दायरे से जुडी वे रूढियां टूट गई हैं जो मनुष्यता के विकास में बाधक बन रही थी
स्वाद नहीं पराया
यह रूढियां खानपान से लेकर रिश्तों, संस्कारों, साहित्य, फैशन और रीति-रिवाजों तक हर स्तर पर देखी जा सकती हैं। पहले केवल दक्षिण भारत तक सीमित रहे डोसा, इडली और उत्तपम आज उत्तर भारत के लोकप्रिय व्यंजन ही नहीं, बल्कि कई घरों में बनाए जाने लगे हैं। ठीक इसी तरह राजस्थान का दाल-बाटी चूरमा पूरे देश का लोकप्रिय व्यंजन बन चुका है। मक्के दी रोटी-सरसों दा साग और छोले-पठूरे, जो चार दशक पहले केवल पंजाब-हरियाणा-दिल्ली तक सीमित थे, आज पूरे देश में आपको कहीं भी मिल सकते हैं। यह तो फिर भी हमारे अपने ही देश के व्यंजन हैं, कई विदेशी व्यंजन भी आज पूरे भारत में लोकप्रिय हो चुके हैं। चाइनीज चाऊमीन भारत के बच्चों का सबसे लोकप्रिय खाद्य है। तिब्बत के मोमोज भारत के कई घरों में बनने लगे हैं। जर्मनी का बर्गर भारत के सबसे लोकप्रिय स्ट्रीट फूड में शामिल हो चुका है। अगर गिनाई जाएं तो लंबी श्रृंखला बन जाएगी इन चीजों की।
यह मधुमय गान..
संगीत-नृत्य और साहित्य की दुनिया भी इससे अछूती नहीं है। भारतीय शास्त्रीय संगीत आज पश्चिम में कितना लोकप्रिय है, इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि यूरोप और अमेरिका के विभिन्न शहरों में आए दिन इसके कंसर्ट आयोजित होते रहते हैं। पं. रविशंकर तो बस ही गए अमेरिका में, पं. विश्वमोहन भट्ट भी यूरोप और अमेरिका में खूब सुने जाते हैं। कथक और भरतनाटयम जैसी नृत्य विधाएं भी वहां खूब लोकप्रिय हो रही हैं। भारतीय कलाकारों को इन देशों में जो सम्मान मिलता है, उससे वे गद्गद ही हो जाते हैं। ठीक इसी तरह भारत भी दूसरे देशों से आने वाली धुनों-नृत्य विधाओं का जोरदार स्वागत करता दिखता है। राजनीतिक-सामरिक कारणों से पडोसी देश पाकिस्तान के प्रति असहज भाव रखने वालों में तमाम ऐसे हैं जो वहां के गजल गायकों के दीवाने हैं। गुलाम अली, मेंहदी हसन, फरीदा खानम, इकबाल बानो, नुसरत फतेह अली खां.. ऐसे कई नाम हैं, जिनके मामले में राजनीतिक सीमाओं का सिद्धांत काम नहीं आता है।
सबके त्योहार में सभी
भारत में तो ऐसे कई त्योहार मनाए ही जाते हैं, जिन्हें हम जानते हैं कि इनके उद्गम कहीं और हैं। यहां विभिन्न धर्मो-संप्रदायों के लोग जिस मेल-मिलाप की भावना से रहते हैं और जिस सहजभाव से एक-दूसरे के पर्व-त्योहार में शामिल होते हैं, वह भी दुनिया भर के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि यह सब केवल भारत में ही होता हो। दूसरे देशों में भी भारत तथा अन्य देशों के पर्व-त्योहार इसी तरह मनाए जाते हैं। कुछ अपवाद छोड दें, तो अधिकतर देशों में स्थानीय लोग भारतीय पर्व आयोजनों में वैसे ही सहज भाव से शामिल होते हैं जैसे हमारे यहां के लोग। यह अलग बात है कि जिन देशों में भारतीय बहुत कम संख्या में हैं, वहां वे व्यक्तिगत स्तर पर केवल अपने घरों में ही आयोजन कर लेते हैं। बेशक वहां दूसरे समुदायों के लोग शायद इनमें शामिल न होते हों। लेकिन जहां वे बडी संख्या में हैं और सामूहिक आयोजन करते हैं वहां के स्थानीय लोग भी इन आयोजनों में वैसे ही उत्साह के साथ शामिल होते हैं, जैसे कि यहां के लोग।
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Tags: indian lifestyle, foreign lifestyle,संस्कृति, हिंदुस्तानी
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