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जब निभाना हो जाए मुश्किल

Jagran Sakhi
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ढेरों अरमानों, सजीले सपनों के साथ बनते हैं शादी के रिश्ते। दिलों का यह मिलन बडे साज-समारोह में होता है, लेकिन समय की धूल कई बार इन रिश्तों पर कुछ ऐसी जमती है कि उसका धुंधलापन रिश्तों के अस्तित्व पर भारी पडता है। दो भिन्न पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के साथ आने में तकरार की आशंका तो हमेशा रहती है, लेकिन अगर ये तकरार मारपीट और अपशब्दों के प्रयोग तक आ जाए, तो उससे खराब स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती। रिश्तों में कडवाहट की यह हद आज की व्यस्त जीवनशैली में एक आम-सी बात होती जा रही है। रिश्ते बनाते हैं और उन्हें जीते हैं.. नहीं जी पाते तो उन्हें ढोते हैं और ढोने की हद हो गई तो छोड देते हैं। यह चलन-सा हो गया है।

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women and lifeभारतीय इतिहास पर नजर डालें तो स्त्री और पुरुष के रिश्ते में प्यार के साथ सम्मान का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। स्त्री अपने पति को परमेश्वर मानती थी तो पुरुष भी स्त्री को देवी स्वरूप समझता था। स्त्री और पुरुष के संबंधों का सबसे खूबसूरत उदाहरण है रामायण में। राम और सीता के संबंध में भले ही दरार आई हो, लेकिन एक-दूसरे के प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई।


स्त्रियों के प्रति रवैये में बदलाव मध्यकाल में हुए राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तनों के साथ आया। स्त्रियों पर पर्दा करने का दबाव भी भारत में विदेशी आक्रांताओं के साथ आया। लेकिन वे गुजरे जमाने के किस्से थे जब त्रासद रिश्तों को लोग जीवन भर सिर्फयह सोचकर ढोते रहते थे कि अगर रिश्ता टूट गया तो समाज क्या कहेगा, मां-बाप मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे या बच्चों का भविष्य अधर में रहेगा। भावनात्मक और शारीरिक दु‌र्व्यवहार सहने के बजाय आज की स्त्री ऐसे रिश्तों से खुद को आजाद करना बेहतर समझती है। इसे बदलते समय का नाम दीजिए या आत्मनिर्भरता की रौ, अब लोग ऐसे रिश्तों को जीवन से निकाल फेंकने में नहीं हिचकते जिनमें उन्हें घुटन महसूस हो या किसी किस्म की प्रताडना झेलनी पडे। अच्छी बात ये है कि समाज भी ऐसे रिश्तों में बंधे रहने का विरोध करने लगा है। राहत की बात ये है कि अगर एक लडकी प्रतोडना का विरोध करती है तो अब उसके इस कदम पर छींटाकशी नहीं होती।


भारतीय समाज में इस बदलाव को आने में बरसों लग गए। लडकी के माता-पिता भी अब समाज के डर से उतने ग्रस्त नहीं रहे जितने पहले हुआ करते थे। दिल्ली विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिक अशुम गुप्ता कहती हैं, अभिभावक भी समझने लगे हैं कि बेटी ने अलग होने का निर्णय इसीलिए लिया क्योंकि रिश्ता जीवन भर ढोया नहीं जा सकता। आज स्त्री केवल आर्थिक नहीं, मानसिक रूप से भी आत्मनिर्भर है। वह बिना किसी सहारे के आगे बढना सीख गई है। यह आत्मनिर्भरता स्त्रियों को असह्य रिश्तों से निजात दिलाने में सहायक हो रही है।


समाजशास्त्री और जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर के.एल. शर्मा कहते हैं, घरेलू उत्पीडन से समाज के हर तबके की स्त्रियां ग्रस्त हैं। निचले तबके की स्त्रियां मार खाती हैं, लेकिन सामाजिक दबाव के कारण पति के अत्याचार को जीवन भर सहती हैं। मिडिल क्लास स्त्री एक वस्तु की तरह मानी जाती है जो घरेलू कामकाज करने के लिए बनी है और उसे निर्णय के लिए पुरुष का मुंह देखना पडता है। लेकिन आज मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास की मानसिकता में बदलाव आ गया है। जैसे-जैसे स्त्रियों में आत्मनिर्भर होने का जज्बा आया, वैसे-वैसे इस क्लास में तलाक और अलगाव के मामले बढ गए। के.एल. शर्मा कहते हैं, मिडिल क्लास में बढते तलाक और अलगाव के मामलों की प्रमुख वजह है स्त्रियों की आत्मनिर्भरता। अब उन्हें पुरुषों की सामंती मानसिकता झेलने की जरूरत नहीं। आर्थिक स्वतंत्रता के चलते उनके इस निर्णय का उतना विरोध भी नहीं किया जाता जितना पहले होता था। बात समाज के उच्च तबके की करें तो वहां भी उत्पीडन होता है, लेकिन यह मानसिक उत्पीडन ज्यादा होता है। वहां स्त्रियों के लिए पति का विवाहेत्तर संबंध आम बात होती है। पार्टियों में दूसरी स्त्रियों को किस करना और उनकी कमर में हाथ डालकर डांस करना पुरुषों के लिए कल्चर है, चाहे उनकी पत्नियों को वह पसंद हो या नहीं। अति हो जाने पर इस क्लास की स्त्रियां भी अलग हो जाने से गुरेज नहीं करतीं।

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Tags: women life in india, relationship, marriage and love, marriage and divorce

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