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कभी वह समय था जब अधिकांश घरों से सिर्फ पुरुष ही बाहर जाते थे और जीवनयापन के लिए अर्थोपार्जन के स्त्रोत वही हुआ करते थे। घर की िजम्मेदारी स्त्रियों पर थीं। खाना बनाने से लेकर बच्चे पालने व मेहमानों के आदर-सत्कार के लिए स्त्रियां ही थीं। ऐसा होने की एक महत्वपूर्ण वजह यह थी कि उस समय शिक्षित होने की दृष्टि से स्त्रियां काफी पिछडी हुई थीं। ऐसे में यदि कभी जीवनयापन का प्रश्न उठ खडा होता था तो भी उनके लिए कार्यक्षेत्र सीमित थे। खाना बनाने, बच्चा पालने या नर्सिग जैसे कुछ ही क्षेत्र हुआ करते थे उनके लिए। बहुत ग्लैमरस या पेइंग जॉब चाहिए होता था तो एयर होस्टेस बनने का विकल्प था उनके पास।
धीरे-धीरे समय बदला, स्त्रियां उच्च शिक्षा पाने लगीं और उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वे किसी भी मायने में पुरुषों से पीछे नहीं। बस, उन्हें मौका दिए जाने की जरूरत है। स्त्री ने अपना परंपरावादी बेचारगी का चोला उतार फेंका और सफलता के नए आयाम स्थापित किए तो इस बात की जरूरत भी बहुत तेजी से सामने आई कि यदि स्त्री घर की चारदीवारी से निकल कर बाहर जाएगी तो उसकी जिम्मेदारी कौन निभाएगा? धीरे-धीरे संयुक्त परिवारों की जगह एकल परिवार ने ले ली। ऐसे में घर-परिवार की जिम्मेदारी भी कठिन समस्या हो गई।
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पुरुषों ने भी बदला अपने को
ऐसे में पुरुषों ने स्त्री की समस्याओं को समझा और अपनी जिम्मेदारी को भी। यह परिवर्तन अचानक नहीं हुआ, इसके लिए बहुत से कारण बने और बहुत ही लंबे इंतजार के बाद यह संभव हुआ। पर यह सुखद परिवर्तन था और बडी मुद्दतों से इंतजार था इस सकारात्मक बदलाव का। पुरुषों ने सिद्ध किया कि यदि स्त्री कम नहीं तो पुरुष भी पीछे नहीं। उन्होंने दिखा दिया कि वे इस लिंग भेद के विभाजन की दीवार को गिरा कर चुनौतीपूर्ण भूमिका को निभा सकने में सक्षम हैं। आवश्यकता पडने पर वे भी मां का फर्ज अदा कर सकते हैं, नर्स बन सेवा कर सकते हैं, रसोई संभाल सकते हैं व मुस्कराते हुए यात्रियों को स्वागत-सत्कार भी कर सकते हैं।
पहले क्यों था ऐसा
पहले स्त्री और पुरुष के क्षेत्र क्यों बंटे थे? क्या स्त्रियां पुरुषों की तुलना में कम योग्य थीं या उनमें पुरुषों का प्रतिद्वंद्वी बनने की हिम्मत नहीं थी? यह काम इसका है, वह काम उसका, यह निर्णय किसने लिया?
मनोचिकित्सक डॉक्टर जयंती दत्ता कहती हैं कि उस समय पुरुषों की मर्जी ही सर्वोपरि थी, उन्होंने ही अपनी सुविधा के हिसाब से काम बांटे। यदि वह बाहर जाएगी काम करेगी तो सिर उठा कर जिएगी इसलिए यही अच्छा रहेगा कि वह घर की चारदीवारी में रहे और घर के काम-काज करे, पुरुषों के इसी सोच की वजह से स्त्री पर उन्हीं कामों की जिम्मेदारी थी जिन्हें करने में पुरुषों को एतराज था।
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सुरक्षित माहौल की चाह
दूसरा कारण था कि स्त्रियों के लिए सुरक्षित माहौल की चाह। ऐसे में घर से ज्यादा सुरक्षित माहौल और कहां हो सकता था? इसलिए कुछ क्षेत्र ऐसे चुने गए जो स्त्रियों के लिए फ्रेंडली थे। यह माना जाता था कि स्त्रियां पुरुषों की तुलना में ज्यादा कमजोर होती हैं, इसलिए उन्हें नर्सिग, सोशल वर्क, अध्यापन व खाना बनाने व बच्चा पालने जैसे काम दिए गए। सबसे खास बात इन क्षेत्रों की यह थी कि यहां काम करने के घंटे निश्चित हुआ करते थे। इसलिए इन कामों को घरेलू माहौल के साथ एडजस्ट करना आसान था। लेकिन समय के साथ स्त्रियों ने इस कथन को झुठला दिया कि वे कठिन व दुष्कर काम नहीं कर सकतीं और इस प्रकार उन्होंने काम के क्षेत्र को परिभाषित करने वाली शब्दावली को पूरी तरह बदल दिया। आज कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जहां स्त्रियों ने अपने को प्रूव न किया हो।
एक सच यह भी
एक सच यह भी था कि जितनी आसानी से पुरुष अपने काम को मैनेज कर लेते थे, उतना ही कठिन कार्य था उनके लिए घर व बच्चों को मैनेज करना। दूसरी तरफ तत्कालीन समाज के प्रबंधकों का मानना था कि स्त्री और पुरुष की प्रवृत्ति में कुछ मूलभूत अंतर होता है। स्त्री पुरुषों की तुलना में घर के कामों में चुस्त, घरेलू प्रबंधन में कुशल व बच्चों की देखभाल व घर के बडे-बूढों की सेवा में लीन आसानी से हो जाती है, इसलिए उसके लिए इसी तरह के क्षेत्र में काम करना ठीक होता है। इन कामों के लिए अतिरिक्त पढाई की भी जरूरत नहीं, न ही बहुत स्किल ही चाहिए। लेकिन यह परंपरावादी सोच के अतिरिक्त कुछ नहीं था। जो सुविधा व अवसर लडकों को प्राप्त थे, यदि लडकियों को मिले होते तो उन्होंने भी हर क्षेत्र में अपनी पकड बनाई होती जैसी आज बनाई हुई है। वहीं पुरुषों को भी मौके मिले होते (आज की तरह) तो उन्होंने भी बेहतर काम किया होता।
आसान नहीं था बदलाव
भारतीय परंपरावादी परिवेश में इतना सब कुछ बदलना आसान नहीं था। स्त्रियों की रुचि के कामों को पुरुषों द्वारा किए जाने के लिए जहां चाहिए थी हिम्मत और अपने पर भरोसा, वहीं इस चुनौतीपूर्ण भूमिका को अदा करने के लिए बहुत सी बातों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना था। पर सवाल यह है कि कोई भी क्षेत्र कभी भी लिंग भेद के आधार पर बांटा जा सकता है? काम का चयन व्यक्ति की निजी रुचि पर निर्भर करता है, न कि दूसरों की पसंद और नापसंद होने पर। जिस काम को करने में आपको संतोष मिले, काम वही करना चाहिए। ऐसे में वे पुरुष जो स्त्रियों के कार्यक्षेत्र में अल्पसंख्यक थे, उन्होंने लिंग भेद की दीवारों को गिरा कर चंद कोशिशें कीं नए कीर्तिमान बनाने की।
जमाना बदला
इसमें संदेह नहीं कि पुरानी सभी मान्यताएं आज के संदर्भ में बदल गई हैं। केवल रहन-सहन या सोच-विचार ही नहीं, फैशन भी बदल गया है। आज पोनीटेल रखने वाला या लुंगी पहनने वाला पुरुष कान में बाली पहन कर भी पुरुषोचित गुणों से युक्त लगता है। पहले भले ही ऐसे लडकों को जनाना कह चिढाया जाता हो, पर आज के समाज में पढे-लिखे व बुद्धिजीवी लोग भी इस प्रकार का फैशन कर रहे हैं। उनका तर्क है कि हर व्यक्ति स्वतंत्र है, अपनी मर्जी के हिसाब से रहने को। आज जब स्त्रियों को पुरुषों की पैंट-कमीज आरामदायक लग रही है, तो हम उनकी वे चीजें, जो हमें अच्छी लगती है क्यों न स्वीकारें।
मैक्स अस्पताल के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉक्टर समीर पारेख का कहना है कि पहले भी ऐसा कोई विभाजन नहीं हुआ था। जिन्होंने किया, यह खुद उनके संकीर्ण दिमाग की उपज थी। किसी भी क्षेत्र का विभाजन लिंग भेद के आधार पर नहीं किया सकता। सबसे महत्वपूर्ण है कि आप क्या चाहते हैं? आपको क्या चाहिए और कितना? यदि आप खुश हैं, संतुष्ट हैं तो अपने काम से तो कोई दूसरा क्या कहता है यह मायने नहीं रखता। यदि जेंडर के बल पर क्षेत्र निश्चित किए जाते तो एप्टीटयूड का क्या मतलब रह जाता। मेरे खयाल में कोई भी पढा-लिखा इंसान इस तरह का विभाजन नहीं करेगा। यह तुलना ही बेमानी है।
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हुआ नया सवेरा
आज स्त्री हर वो काम कर रही है, जो कभी पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में हुआ करते थे, उसी प्रकार पुरुष भी आज हर वो काम आराम से कर रहा है, जो कभी केवल स्त्रियां करती थीं। कभी तो नया सवेरा होना ही था, कभी तो एक-दूसरे की समस्याओं व जरूरतों को जानना-समझना ही था। वह शुभ काम आज और अभी से ही क्यों नहीं। आज न तो स्त्री को यह शिकायत हो सकती है कि उसे व उसके काम को नहीं समझ रहा और न ही पुरुष यह कह सकता है कि उसके बराबर कोई मेहनत नहीं कर सकता। हां, यह जरूर है कि कुछ पुरुषों के सराहनीय प्रयासों से प्रभावित होकर और भी लोगों को बल मिलेगा जो मिटाएगा इस स्टीरियो टाइप सोच से मुक्ति। वास्तव में सराहनीय हैं उन पुरुषों के प्रयास, जिन्होंने इस चुनौतीपूर्ण भूमिका को दिल से स्वीकारा और गिरा दीं भेदभाव की सभी दीवारें। समाज में प्रतिष्ठा व परिवार में सामंजस्य स्थापित करने वाले इन लोगों के प्रयासों को कौन झुठला सकता है।
अपने ऊपर विश्वास होना जरूरी है
संजीव कपूर, शेफ
यदि हम पुरानी मान्यता पर नजर डालें तो यह दिखाई देगा कि स्त्रियों और पुरुषों का कार्यक्षेत्र और अधिकारक्षेत्र बंटा हुआ था। लेकिन अब पिछले चंद सालों से फलां क्षेत्र सिर्फ स्त्रियों का है या फलां काम महज पुरुषों का है, यह भेद खत्म हो गया है। आज कौन सा क्षेत्र किसके लिए है, यह कोई और नहीं तय कर सकता। मेरी समझ से ऐसा कोई पेशा अब बचा नहीं कि जो सिर्फ स्त्रियों के लिए हो या सिर्फ पुरुषों के लिए हो। काफी समय पहले सिर्फ पुरुष ही नौकरी किया करते थे, अब वक्त बदल चुका है, स्त्रियां भी बहुत ज्यादा तादाद में नौकरी कर रही हैं।
दूसरा क्षेत्र है किचन, जिस पर सिर्फ स्त्रियों का अधिकार था। वक्त के साथ इस क्षेत्र में भी बदलाव आया। किचन का क्षेत्र सिर्फ स्त्रियों का नहीं रहा। मैंने तो इस क्षेत्र में अपना सिक्का जमाने की हिम्मत दिखाई ही, मेरे जैसे कुछ दूसरे लोगों ने भी इस दुनिया में अपनी धाक जमाई। मुझे कुकिंग में दिलचस्पी थी इसलिए मैंने होटल मैनेजमेन्ट कोर्स किया, पर सच कहूं तो उस जमाने में भी पढे-लिखे लोग, खास कर मर्द किचन में नहीं जाया करते थे। हां, मेरे परिवार में मेरे पापा किचन में जाते थे, वह भी खास तौर पर तब, जब उन्हें नॉनवेज बनाना होता था, क्योंकि मेरी मम्मी वेजटेरियन रही हैं। साथ ही मेरे परिवार में ऐसी किसी भी तरह की बंदिशें नहीं थीं कि मर्द किचन में नहीं जाएंगे वगैरह..। मेरे छोटे भाई को भी शौक था स्वादिष्ट खाना बनाने का, पर आगे चलकर वह चार्टर्ड एकंाउटेंट बना। मैंने जब इस क्षेत्र में कदम रखा तो घर का माहौल खुला होने की वजह से घर में मेरे शेफ होने पर एतराज किसी को हुआ ही नहीं। पर हां, मैं इस बात को मानता हूं कि जब मर्द घर के किचन में जाकर रसोई में हाथ बंटाते हैं तो वह चर्चा का विषय बन जाता है। लेकिन मेरे घर ऐसा नहीं हुआ। यदि कभी मेरे पेशे को लेकर निंदा हुई भी तो उस निंदा को किसी ने गंभीरता से लिया नहीं। मेरी पत्नी की सिस्टर भी शेफ है। इसलिए हम लोगों के परिवार में अब दो शेफ बन गए हैं। जब मैंने शेफ बनने का निर्णय लिया तो पूरी सोच-समझ के साथ लिया। हमेशा यही माना कि कोई काम छोटा या बडा नहीं होता। उस काम को हम लोग ही दर्जा देते हैं। जब मैं होटल मैनेजमेंट सीख रहा था तब मेरे सहकर्मियों में प्रत्यक्ष रूप से किचन में जाकर काम करने के लिए कोई आसानी से राजी नहीं होता था। पर मैं मानसिक रूप से हर काम के लिए तैयार था। इस बात को हमें समझना चाहिए कि विदेशों में सभी को ज्यादातर घर-ऑफिस के सारे काम खुद ही करने पडते हैं। वहां काम करने के लिए सहायक न के बराबर हैं। मैंने कभी भेडचाल में विश्वास नहीं किया। अपनी पसंद को ध्यान में रखते हुए वही किया, जो अच्छा लगा । पहले मैंने शेफ की नौकरी की, फिर आज से दस साल पहले मैं स्वतंत्र रूप से अपना काम करने लगा। इसमें मैं अपनी मर्जी और सहूलियत के अनुसार काम कर सकता हूं और शायद इसी वजह से मैं अपने काम से पूर्णतया संतुष्ट हूं । अपने काम से संतुष्टिकरण का कारण यह भी है कि मैंने अपने काम में पूरी मेहनत की है और बुद्धि और मेहनत के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया है। मुझे याद है कि आज से 14 साल पहले मैंने जी टीवी के खाना-खजाना रेसिपी कार्यक्रम के अंतर्गत दर्शकों को कुछ डिश बनाने की विधियां सिखाना शुरू किया था, वह कार्यक्रम आज भी बदस्तूर जारी है। यह दर्शकों का मेरे प्रति प्यार है, जो मैं इस काम में सस्टेन कर पाया। वैसे मैं इस दुनिया से अलग किसी दूसरे क्षेत्र में होता तो भी शिखर पर ही होता। मैं किस्मत को जरूर मानता हूं पर किस्मत का साथ तब मिलता है, जब आपका अपने आप पर विश्वास हो, आपकी अपने काम में पूरी दिलचस्पी और लगन हो। साथ ही मेहनत करने के लिए आप तत्पर हों। मैंने अपना 100 प्रतिशत अपने काम को दिया है।
वैसे मेरे घर का किचन अल्यूना (पत्नी) के हाथ में है, पर जब भी मेरा मूड बनता है या कोई खास डिश बनाने की इच्छा होती है तो मैं खुद किचन में जाकर डिश बनाता हूं।
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यह केवल स्त्रियों की फील्ड नहीं
डॉ. के.के. राय, गाइनेकोलॉजिस्ट- एम्स, दिल्ली
मेडिकल में प्रवेश लेने के बाद जब मैंने एमबीबीएस कर लिया, तो जैसा उस डिग्री के बाद होता है, मेरा इंटर्नशिप का वक्त आया। इंटर्नशिप के अंतर्गत हर विभाग में आपको भेजा जाता है। जब मैं पीडिएट्रिक में गया तो मैं समझ गया कि यह मेरे लिए आसान नहीं होगा। मुझे गाइनी का क्षेत्र ही ऐसा लगा जिसमें संभावनाएं बहुत दिखाई दे रही थीं इसलिए मैंने इसी विभाग में जाना निश्चित किया। ऐसा बिलकुल नहीं कि इस क्षेत्र में मेल डॉक्टर्स की कमी है। मैंने कोलकता से पढाई की और प्रसिद्ध गाइनेकोलॉजिस्ट डॉ. बी.एन. चक्रवती के अंडर में काम सीखा। मुझे नहीं लगा कि उनके पुरुष होने की वजह से उनकी प्रैक्टिस प्रभावित हुई हो। इस समय महाराष्ट्र, साउथ व केरल में बहुत से मेल गाइनेकोलॉजिस्ट हैं और सफलतापूर्वक अपना काम कर रहे हैं। यह भावना कि स्त्रियों की डॉक्टर स्त्री ही हो, नॉर्थ इंडिया में ज्यादा है। हमें मेडिकल की शिक्षा लेते समय ही सिखाया जाता है कि यह नोबल प्रोफेशन है, इसका ईमानदारी से निर्वाह करो। जिस समय हम ऑपरेशन करते हैं या इलाज करते हैं हमारे सामने एक इंसान भर होता है, स्त्री या पुरुष नहीं। उसे बचाना या ठीक करना सबसे महत्वपूर्ण होता है। ऐसा न हो तो शायद इलाज करना ही कठिन हो जाए। यह ठीक है कि मेरे रोगियों में स्त्रियों की संख्या ज्यादा होती है लेकिन सारे रोगों के पीछे पुरुष बराबर से इनवॉल्व होते हैं। 33 प्रतिशत मेल स्त्री रोगों के पीछे ही जिम्मेदार होते हैं। दूसरे ओपीडी में आने वाले 50 प्रतिशत यौन संचारित रोग (एसटीडी) रोगियों के साझेदार भी पुरुष होते हैं। कुछ ऐसे केसेज होते हैं जैसे प्रेग्नेंसी, अबॉर्शन, इन्फर्टिलिटी या जेनेटिक केसेज, इनमें भी कहीं न कहीं पुरुष इनवॉल्व होता है। इसलिए मुझे नहीं लगता कि इस क्षेत्र में मेल का होना अपराध है। यह जरूर है कि इस फील्ड के लिए बहुत-सा धैर्य और अपने पर ढेर सा भरोसा चाहिए।
सुखद रहा मेरा निर्णय
नवीन, हाउस हसबैंड
अंग्रेजी में ऑनर्स करने के बाद मैंने मार्केटिंग में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और एडवर्टाइजिंग में काम शुरू किया। इस बीच ग्राफिक डिजाइनिंग का कोर्स कर एनआईएनआईटी से भी अपना कोर्स पूरा किया। फिर हेजल से शादी हुई, उसने एमएसडब्ल्यू किया हुआ था। हम दोनों खुश थे, तभी हमारी एक बच्ची हुई, जिसका नाम हमने सना रखा। फिर शुरू हुआ दिक्कतों का सिलसिला। हम पति-पत्नी का जॉब ऐसा था कि कई बार हम दो-दो तीन-तीन दिन बच्ची से नहीं मिल पाते थे। जब आते वह सो रही होती। दोनों की टूरिंग जॉब थी। मेरे टूर तो लंबेहो जाते। हेजल इस सबसे अकेले में परेशान हो जाती। झगडा व असंतुष्टि इतनी बढ गई कि लगा कि तलाक की नौबत आ जाएगी। यह सब चल ही रहा था कि एक घटना ऐसी घटी कि सब कुछ बदल गया। मैं मलेशिया से वापस आ रहा था और वह कनाडा जा रही थी। हम पौन घंटे के लिए मिले, वह भी एयरपोर्ट पर बच्ची को लेने-देने के लिए। इससे ज्यादा कष्टकारी अनुभव किसी भी पेरेंट्स के लिए और क्या होता। यदि मेरा प्लेन एक घंटा लेट हो जाता तो बच्ची को क्या लगेज में छोडते? बस उसी दिन के बाद बैठ कर हमने फैसला लिया कि दोनों में से एक घर रहेगा। लेकिन कौन? यह सवाल भी महत्वपूर्ण था। मैं अपनी भागा-दौडी की नौकरी से परेशान था और हेजल अपने काम से संतुष्ट थी इसलिए मेरा घर रहना तय हुआ। शुरुआत में कोई कम विरोध नहीं हुआ। सबसे पहले तो मेरे घरवाले ही िखलाफ थे। दोस्त-यार मजाक बनाने से बाज नहीं आते। कभी-कभी जी करता कि इतने लोग कह रहे हैं तो कहीं तो कोई सच होगा ही। मैंने घर बैठे ही वेब डिजाइनिंग और मल्टी मीडिया के लिए काम किया। आरंभ में दिक्कत होती पर धीरे-धीरे मेरे क्लाइंट जानने लगे कि नवीन दस से दो के बीच ही मिलेगा और यदि मीटिंग है तो बच्ची साथ आएगी। ऐसा होने पर कॉन्फ्रेंस हॉल के एक कोने में बैठ कर सना कागज पर ड्राइंग करती रहती। अब वह साथ नहीं जाती पर लोग उसे मिस करते हैं। एक बहुत अच्छी बात हुई कि मेरे घर रहने से वह यह कि घर के सारे काम समय पर निपटने लगे। सबसे बडा फायदा जो हुआ वह यह था कि सना की परवरिश ठीक ढंग से हुई। उसे पालने में दिक्कत इसलिए भी नहीं हुई क्योंकि जब मैं कॉलेज में था, तभी मेरे जीजा बाहर गए हुए थे और दीदी वर्किग थीं, उनके दो छोटे बच्चों को पालने में मेरे सहयोग ने मुझे अनुभवी बना दिया था। तीन साल अकेला रहने पर खाना बनाना भी सीखा। भूख तो सबको लगती है चाहे आदमी हो या औरत इसलिए खाना बनाना तो आना ही चाहिए। निर्णय आसान नहीं था लेकिन सुखद साबित हुआ। मेरा परिवार बिखरने से बचा व बच्ची का बचपन खुशहाल रहा, इसका संतोष है मुझे।
मैं संतुष्ट हूं
श्री लीला राम रेवालिया, मेल नर्स-एम्स, दिल्ली
आज से कुछ समय पहले तक कोई मेल इस क्षेत्र में नहीं आता था। मुझे लगता है कि इसकी मुख्य वजह यही होगी कि जो केयर व दुलार एक मां या बहन दे सकती है वह और कोई नहीं, इसीलिए उदार मन से सेवा करने वाली नर्स को सिस्टर कहा जाता था। जहां तक मेरी बात है अपने करियर के चुनाव के समय मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं इस प्रोफेशन में जाऊंगा। मैं जयपुर से 100 किलोमीटर दूर बहरोड में रहता था इसलिए ज्यादातर पढाई जयपुर से हुई। नर्सिग की ट्रेनिंग भी मैंने कॉलेज ऑफ नर्सिग से ली। यहां डिप्लोमा कोर्स तीन साल का व डिग्री कोर्स चार साल का होता है। पिताजी की इच्छा थी कि मैं इस प्रोफेशन में जाऊं। सुरक्षित नौकरी के साथ अच्छी आय भी थी। आरंभ में लोग छींटाकशी करते थे, कोई सिस्टर बोलता तो कोई कुछ पर अब ऐसा कुछ नहीं है। प्रशिक्षण के दौरान चार गाइनी केसेज भी करने होते हैं। एक बार मानसिक रूप से तैयार होने के बाद कोई उलझन नहीं होती। जब आप इस क्षेत्र में आते हैं तो केवल सेवा का भाव आपके मन में रहता है। यही जज्बा आपको आपको अपना काम सही तरह से करने में मदद करता है।
यदि आगे तरक्की की चाह है तो भी इसमें विकल्पों की कमी नहीं है और ज्यादा पढाई कर आप यूएस जा सकते हो। इस क्षेत्र में पहले वाकई मेल नर्सो की कमी थी। इसकी वजह थी कि उस समय इस प्रोफेशन को फीमेल प्रोफेशन माना जाता था। यह तो है कि बहुत सहनशक्ति चाहिए इस प्रोफेशन में व पढाई भी कम नहीं है। इतनी लंबी पढाई व ट्रेनिंग करने के बाद आप आधे डॉक्टर हो जाते हैं। खैर हिम्मत नहीं हारी मैंने और सही ढंग से अपनी ट्रेनिंग पूरी कर ली। दिल्ली में मैंने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जॉइन किया। वेतन भी ठीक-ठाक था। इस प्रोफेशन में आने से पहले इसके बारे में बहुत नहीं जानता था, लेकिन कितना नोबल और संतोषदायक प्रोफेशन है, यह यहां आकर जाना। कई तरह के विभागों में जाना, मेडिकल को जानना भी इस काम का हिस्सा है। इसके साथ जो सबसे अच्छी बात है, वह यह कि और किसी प्रोफेशन में आपको इतनी दुआएं और शुभकामनाएं नहीं मिलतीं। पहले जरूर यह क्षेत्र स्त्रियों के लिए सीमित था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब इस लाइन में पुरुष भी आ रहे हैं। आरंभ में यह बताने में संकोच होता था कि मैं मेल नर्स हूं, पर अब नहीं होता। एक दिक्कत है तो यह कि हमारे पद के लिए पर्याप्त डेजिग्नेशन नहीं। यदि आर्मी में होते तो लेफ्टीनेंट का पद होता, यहां ज्यादा से ज्यादा स्टाफ नर्स बन पाएंगे। आजकल मेल नर्सो कर भर्ती बराबर से हो रही है।
क्यों न चुनें इस क्षेत्र को
हरचरण सिंह तनेजा, मेल पर्सर, एयर इंडिया
कभी अपने भविष्य के बारे सोचते हुए यह नहीं सोचा था कि इस लाइन में जाना है। हां, यह जरूर है कि एयर इंडिया में नौकरी करने के अपने चार्म थे और अभी भी हैं। एयर होस्टेस के कार्य को पहले लडकियां ही अंजाम देती थीं। सुंदर, आकर्षक चेहरे जब मुसकराकर स्वागत करते हैं तो यात्रियों की थकान दूर हो जाती है। लेकिन जहां तक इस काम को अंजाम देने का सवाल है, पुरुष भी पीछे नहीं। क्या नम्रता व उदारता में पुरुष किसी से कम हैं? यदि कोई हमारे घर में जाए तो स्त्री के न रहने पर हम उसके आदर-सत्कार में कहीं कोई कमी छोडते हैं? इस क्षेत्र में पुरुषों के आने की वजह यह भी थी कि नाइट डयूटी और टफजॉब के लिए पुरुष बेहतर रहते हैं इसीलिए एयर इंडिया ने पुरुषों की नियुक्ति निश्चित है। नौकरी के अच्छे अवसर, बेहतर वेतन, अच्छी सुविधाओं के चलते कौन नहीं आना चाहेगा इस क्षेत्र में! देश-विदेश में घूमने के इतने अवसर और कहां मिल सकते हैं! आरंभ में एकबारगी लोग यह भूलने नहीं देते कि यह फील्ड लडकियों की है। कभी-कभी कोई यात्री उल्टा-सीधा कमेंट मार देता है कि यार, तुम कहां फंसे हो, किसी अच्छी-सी लडकी को सेवा का मौका दो, तुम आराम करो, पर यह सब चलता रहता है। बातें करने वालों को तो आप रोक नहीं सकते। पहले और अब की विचारधारा में बहुत बदलाव आया है। लोगों की सोच के साथ उनके देखने का नजरिया भी बदल गया है। तेजी से बदलते समाज में हमें अपना दृष्टिकोण व्यापक करना ही पडेगा।
विभाजन लाइन मिट गई है
परवीन मल्होत्रा, करियर काउंसलर
आज से कुछ समय पहले तक कुछ क्षेत्र ऐसे थे, जो सॉफ्ट या नाजुक थे। वहां काम करने की सुविधाएं व समय स्त्रियों के हक में था। वे क्षेत्र स्त्रियों के लिए सुरक्षित मान कर, उन्हीं के लिए छोड दिए गए थे। इसकी एक मुख्य वजह यही थी कि स्त्रियां प्रकृति से कोमल होती हैं, उनके स्पर्श में मुलायमियत होती है व केयरिंग की भावना भी उनमें पुरुषों से कहीं अधिक होती है। इसलिए नर्सिग, एयर होस्टेस, टीचिंग व घरेलू गृहिणी तक के सभी कार्यक्षेत्र स्त्रियों के अधिकार में थे। आज स्थितियां बदल गई हैं। हर क्षेत्र में काम के अलावा टेक्नीकल स्किल भी चाहिए। यहां आने पर स्त्री और पुरुष का अंतर समाप्त हो जाता है। आज कौन सा क्षेत्र ऐसा है जहां स्त्री ने अपने कदम न रखे हों। स्पेस में, इंजीनियरिंग में, मेडिकल में, सॉफ्टवेयर, आईटी सभी फील्ड में स्त्रियां आगे आ रही हैं। इस समय सर्विस इंण्डस्ट्री में बूम आया हुआ है इसलिए अपने दृष्टिकोण को व्यापक करना होगा। हर स्त्री में पुरुषों-सी सख्ती व हर पुरुष में स्त्रियों-सी नरमी छिपी होती है इसलिए जरूरत पडने पर हर एक का काम दूसरा कर सकता है। कहीं कोई मुश्किल नहीं होती। यह जरूर है कि इन चीजों का विरोध हमारे घर व समाज से ही शुरू हो जाता है। भारतीय ट्रेडीशनल माइंड सेट को हिलाना आसान नहीं, लेकिन चंद ऐसी सकारात्मक कोशिशें जल्दी ही कोई सुखद परिणाम भी देंगी, ऐसी आशा तो हमें करनी ही चाहिए। जब मेरे पास कोई आकर पूछता है कि कोई क्षेत्र ऐसा बताइए जो हमारी लडकी के लिए उपयुक्त हो तो मुझे कहना पडता है कि यह विचार ही गलत है। आज की तारीख में कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जो लिमिटेड हो। सारे विकल्प दोनों के लिए खुले हैं। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि भारतीय स्त्रियों की लाइफ अपेक्षाकृत ज्यादा टफ है। पुरुषों को न केवल इसे समझना होगा बल्कि अपने को बदलना भी होगा। इतना बदला है तो और भी बहुत कुछ बदलेगा।
कला से लगाव ले आया मुझे इस क्षेत्र में
भरत गोडांबे, वरिष्ठ मेकअप आर्टिस्ट
मुझे मेकअप के क्षेत्र से जुडे 25 वर्ष हो चुके हैं। जब मैं इस क्षेत्र से जुडा तो यह बात मेरे दिमाग में दूर-दूर तक नहीं थी कि मैं कुछ ऐसे क्षेत्र से जुडने जा रहा हूं जो स्त्रियों के अधिकार क्षेत्र में आता है । दरअसल पच्चीस वर्ष पहले मेरी माली हालत ठीक नहीं थी। घर-परिवार का निर्वाह करने के लिए मैट्रिक पास करते ही मैं कुछ काम करने के बारे में गंभीरतापूर्वक सोचने लगा। मुझे ड्रॉइंग, पेंटिंग में काफी दिलचस्पी थी। इसी दरमियान मुझे पंढरी दादा जूकर मिले। पंढरी दादा पूरी मेकअप की दुनिया के गुरु हैं। पंढरी दादा ने मुझे अपना शिष्य बना लिया और मेकअप के गुर सिखा कर मुझे इस काबिल बनाया कि मैं एक स्वतंत्र मेकअप आर्टिस्ट के रुप में अपनी जगह बना सकूं । बेसिकली मुझे पेंटिंग का शौक था, यही सोचकर मैंने मेकअप को अपना पेशा बना लिया कि चाहे वह ब्रश पेंटिंग का हो या फिर मेकअप का. है तो आिखर कला ही न.? फिर मुझे उस वक्त घर की जिम्मेदारी संभालनी जो थी। मैंने मेकअप को पेंटिंग समझ कर पहले पहले काम शुरू कर दिया। बरसों तक इस काम को कोई सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था, फिर एडवर्टाइजिंग के क्षेत्र के लोगों ने इस काम को अहमियत दी, अच्छा पैसा दिलाया। फिर आगे चलकर मिस इंडिया, मिस यूनिवर्स, एशिया पैसिफिक जैसी कई सौंदर्य स्पर्धाएं होने लगीं और उन स्पर्धाओं के माध्यम से आम लोगों तक यह बात पहुंचने लगी कि एक आम साधारण युवती को भी मेकअप के जरिए खूबसूरत बनाया जा सकता है। जो लडकियां बतौर मिस इंडिया या मिस यूनिवर्स बनकर देश का और यूनिवर्स का प्रतिनिधित्व करती है, उन्हें खूबसूरती दिलाने में मेकअप आर्टिस्ट का बहुत योगदान होता है। अब अकसर ब्यूटी क्वीन्स मंच पर मेकअप आर्टिस्टों का नाम लेने लगी हैं। मीडिया भी धीरे-धीरे एलर्ट हो गया है और इस पेशे को सम्मान मिलने लगा है। जब मैं मेकअप आर्टिस्ट बना तो करीबी रिश्तेदारों ने यह आशंका जाहिर की कि मैं गलत पेशे में जा रहा हूं। पर मां, जिसने हमें पिता के पश्चात पाल-पोसकर बडा किया, मुझ पर विश्वास जताया सो मैंने बेिफक्र होकर इस क्षेत्र को अपनाया। पिछले 25 वर्षो में मुझे परवीन बॉबी से लेकर, रानी मुखर्जी, माधुरी दीक्षित और दीपिका पादुकोण (ओम शांति ओम) से लेकर सोनम कपूर (सांवरिया) तक और ऐश्वर्या से लेकर लारा दत्ता, सुष्मिता सेन तक हर ब्यूटी क्वीन का मेकअप करने का मौका मिला। आज जब बॉलीवुड में आनेवाली हर नायिका खुद का मेकअप मुझसे करना अपनी खुशनसीबी मानती है। मुझे लेडीज स्पेशल मेकअप आर्टिस्ट कहा जाता है, तो मैं इसे अपना सम्मान मानता हूं। मैं पेशे में न होता तो शायद चित्रकार बनता। इस पेशे में वर्किग आवर्स तय नहीं होते, पर बहुत-सी सहनशक्ति होनी चाहिए।
क्या पुरुषों में ग्लैमर कम है
मुंजमिल, मॉडल – अभिनेता
लोग अकसर समझते भी हैं, मानते भी हैं कि मॉडलिंग का क्षेत्र स्त्रियों के लिए है। मैं इस बात को बखूबी समझता हूं कि मॉडलिंग की दुनिया ग्लैमर के बिना नहीं चल सकती, वो तो लडकियों का ही काम है। इसलिए तो ज्यादातर फैशन डिजाइनर स्त्रियों के ही परिधान बनाते हैं। जो फैशन शोज होते हैं, उनमें रैम्प पर फीमेल मॉडल्स ही होती हैं । सभी सौंदर्य प्रतियोगिताओं में जो लडकियां चुनकर आती हैं, वही आगे चलकर फिल्मों में आती है, सुपर मॉडल्स बनती है, मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड बनती है, उनकी वाहवाही भी बहुत होती है। मिस्टर इंडिया के रूप में जो युवक चुने जाते हैं क्या उन्हें इतनी पब्लिसिटी मिल पाती है? मेरा यह कहना नहीं कि हमें मौके मिलते ही नहीं। होते हैं पर स्त्रियों से कम। मॉडलिंग के क्षेत्र में एक सुपर मॉडल होने से मुझे एक स्टेटस मिल रहा है, मुझे मनचाहा पारिश्रमिक भी मिलता है। मेरा काम, नाम देखते हुए ही मुझे अभिनेत्री पूजा भट्ट की फिल्म धोखा में बतौर अभिनेता काम करने के लिए ऑफर आया। कहने में खुशी होती है कि मॉडलिंग, जो खासकर फीमेल फील्ड माना जाता है, उसी में रहते हुए भी मेरा धीरे-धीरे वजूद बनता गया। इसी कारण मुझे अन्य फिल्मों के ऑफर्स मिल रहे हैं। अब मैं आपको बताऊं कि मेरा इस क्षेत्र से किस तरह जुडना हुआ। वैसे मैं कश्मीर का हूं। कश्मीर में मेरा जन्म हुआ, पर पढाई-लिखाई के लिए मैं दिल्ली आ गया था। मैकेनिकल इंजिनियरिंग की पढाई के दौरान ही मैंने मॉरीन वाडिया की ग्लैडरैग्स मिस्टर इंडिया में हिस्सा लिया और 2003 में मैंने यह कॉन्टेस्ट जीत लिया। मेरा इस कॉम्पटीशन में यूं ही हिस्सा लेना और उसे जीतना किसी खवाब की तरह था, फिर यह सिलसिला बढता ही गया। मेरा महज शौक कब पेशा बना, मुझे ही पता ही नहीं चला। शायद नाम, धन-दौलत सारा कुछ तो यह क्षेत्र दे ही देता है, इसलिए मेरे परिवार ने मेरे इस फैसले पर कोई खास आपत्ति नहीं उठायी । मेरा पहले मॉडलिंग से जुडना, फिर देश-विदेश के मॉडलिंग असाइनमेंटस से जुडना, नामचीन फैशन डिजाइनर्स के परिधान रैम्प पर पहनने का मौका मिलना, फिर फिल्मों के ऑफर्स आना, क्या यह किसी सुनहरे सपने की तरह नहीं है? जाहिर-सी बात है मैं अपने काम से बेहद खुश हूं। मुझे मेरा पेशा क्रिएटिव सैटिस्फैक्शन देता है और अच्छे पैसे भी, साथ में नाम भी । यदि मैं इस क्षेत्र में नहीं होता तो मैकेनिकल इंजीनियरिंग में ही होता। कहते है न वहीं होता है, जो मंजूर-ए-खुदा होता है। आज की पढी-लिखी जेनरेशन को वही क्षेत्र अपनाना चाहिए, जिसमें उसकी दिलचस्पी हो। अपनी इच्छा के विरुद्ध कोई भी क्षेत्र चुनने पर आप कामयाब होंगे इसमें संदेह रहता है व संतुष्टि के आसार समाप्त हो जाते हैं।
वक्त बदल गया है
शहजाद जावेरी, ज्यूलरी डिजाइनर
मेरा मानना है कि वक्त बदल चुका है. दायरे- मायने कब के बदल चुके हैं। अब कोई खास काम सिर्फ पुरुषों के और कुछ विशेष काम स्त्रियों के, ऐसा कुछ रहा नहीं। बहरहाल, यदि मैं अपनी बात करूं तो ज्यूलरी का काम मेरे परिवार की धरोहर है । मेरा जावेरी परिवार ज्यूलरी बनाने का काम ही किया करता था। सच तो यह है कि वालिद साहब के इंतकाल के पश्चात मां ने हमारी परवरिश की। वो सोने के गहने कुशलता से बनाया करती थी। बैंगल्स पर मीनावर्क करना उनकी खासियत थी। मुझे जेनेटिक इंजीनियर होना था, पर मां को सपोर्ट देने के लिए मुझे ज्यूलरी डिजाइनर बनना पडा, यही पुश्तैनी काम संभालना पडा। मैंने फिर ज्यूलरी के बारे में एबीसी सीखना-जानना शुरू किया। डायमंड्स की मेकिंग से लेकर उसके तकनीकी पहलू और नए ट्रेंड्स की बारीकी से जानकारी ली। हमारे करीबी जानते थे कि मैं एकेडमेकली तेज था, साइंटिस्ट बनने की मेरी काबिलियत थी पर मजबूरी में मुझे अपने फैमिली बिजनेस में आना पडा सो किसी के कोई प्रतिक्रिया जाहिर करने का प्रश्न नहीं था। यह आदत आरंभ से थी कि मैं जो भी काम करता हूं, उस में पूरी जान लगा देता हूं । ज्यूलरी डिजाइनिंग में मैंने अपने आपको अपडेट कर लिया, कोई कसर नहीं छोडी। इस काम में मुझे संतुष्टि तो है, क्योंकि कोई भी क्रिएटिव काम बोर नहीं कर सकता। ज्यूलरी डिजाइनिंग के काम में बहुत सारे लोगों से मिलने का मौका देता है मुझे। इस काम के सिलसिले में देश-विदेश की संस्कृतियां जानने -परखने का भी मौका मिलता है। मशहूर वैज्ञानिक सिगमंड फ्रॉइड ने भी कहा है कि स्त्रियों का मन जानना बेहद मुश्किल काम है। मैं यह पूरी कोशिश करता हूं कि हर स्त्री के मनपसंद आभूषण बनाऊं। जर्नी ऑफ ज्यूलरी इज टाइमलेस। मुझे लगता है, स्त्रियां ऐसी ज्यूलरी पहनें, जिन्हें पहन कर वो आनंद महसूस कर सकें ।
स्त्रियों को देता हूं केश विन्यास
मुखराज कुमार (विगमेकर)
मैं पहले मेकअप मैन था। उन दिनों मेरे साथ विग बनाने वाले भी थे। उसे बार-बार देखने से ही इस क्षेत्र में मेरा रुझान बढा। मेकअप के साथ विग का तालमेल होना काफी जरूरी होता है, साथ ही इसमें क्रिएटिविटी भी काफी है। शुरू में लोग कहते थे कि यह कठिन काम है, इसकी वर्किग काफी मुश्किल है, क्योंकि इसे आर्टिस्ट के ऊपर सेट करना पडता है। कैसी स्टाइल हो, कैसा आर्टिस्ट को सूट करेगा, इन सबका खयाल रखना पडता है। ठीक से नापजोख लेना, रंग का मैचिंग बनाना आदि कई महत्वपूर्ण काम होते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यदि काम आप की रुचि का हो तो मुश्किल काम भी आसान हो जाता है। यही वजह है कि भले ही ये क्षेत्र स्त्रियों का हो पर मेरी मेहनत ने मुझे यहां तक पहुंचाया। हमारे काम का कोई समय तय नहीं होता, कई बार रात-रात भर बैठकर काम करना पडता है। अच्छी विग के साथ हीरोइनें भी खूबसूरत लगती हैं लोग तारीफ करते हैं। मेरे काम का परिणाम तुरंत मिल जाता है। ओम शांति ओम में दीपिका पादुकोण (नायिका) के पूरे बालों का गेटअप मेरा है। पिछले 35 वर्षो से मैं इस क्षेत्र में काम कर रहा हूं। ऐसी कोई अभिनेत्री नहीं बची, जिसके लिए मैंने विग तैयार नहीं किए। अत्यधिक मेहनत के बाद भी नायिकाओं को संतुष्ट करना पडता है इस काम में हमेशा एक चुनौती होती है। श्रीदेवी, मनीषा कोइराला, सेलिना जेटली, अमीषा पटेल, हेमा मालिनी आदि सभी के विग मैंने बनाए हैं। देवदास फिल्म में माधुरी दीक्षित के बाल भी मैंने ही तैयार किये थे। मेरे काम को लेकर मेरे परिवार में किसी को कोई आपत्ति नहीं सभी खुश है। मेरा बडा लडका नवीन भी मेकअप का काम करता है। समाज को अगर हम लें, तो कोई भी काम पुरुष या स्त्री के लिए अलग अलग बंटे नहीं हैं। जरूरत है उसे करने वाले की खुशी और संतुष्टि की, जो मुझे भरपूर मिली। इसमें कलर मैचिंग, नाप-जोख आदि सब परफेक्ट होनी चाहिए। इसलिए किसी गुरु के पास कुछ दिनों तक ट्रेनिंग लें। अगर मैं इस क्षेत्र में न आता तो मेकअप मैन ही रहता। विग तो आजकल ग्लैमर व फैशन के लिए सभी पहनते है। पूना फिल्म इंस्टीटयूट में मैं विग पर लेक्चर देता हूं। अभी वेबसाइट पर भी विग के बारे में जानकारी दूंगा।
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