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स्मॉल इज द न्यू बिग..अंग्रेजी की यह कहावत इस दौर को पूरी तरह परिभाषित करती है। एक जमाना था जब बडा बंगला, बडी गाडी, भरा-पूरा परिवार, भारी-भरकम फर्नीचर और गैजेट्स संपन्नता की निशानी समझे जाते थे। आज स्थिति इसके उलट है। घर-परिवार, गैजेट्स, गाडियां, फिल्में, मॉल्स-मल्टीप्लेक्सेज, डाइट और आउटफिट्स तक सब मिनी हो चुके हैं। एसएमएस और टी 20 का दौर है। जीने का यह नया अंदाज कैसा है, जानते हैं इस कवर स्टोरी में।
इक बंगला फ्लैट बने न्यारा
क्या आपके सपनों में अब भी हरे-भरे पेडों और खूबसूरत लॉन से सजा हुआ कोई बडा सा बंगला आता है? क्या आप अब भी इक बंगला बने न्यारा, रहे कुनबा जिसमें सारा..वाला गाना गुनगुनाते हैं? तब आप पुराने जमाने के बाशिंदे हैं। यह जान लें कि अब न बंगले बचे-न ही कुनबे। अब तो वन बीएचके, टू या थ्री बीएचके के बाद स्टूडियो अपार्टमेंट्स का जमाना है।
रीअल इस्टेट सर्वे बताते हैं कि हाल के पांच-सात वर्षो में टू बीएचके फ्लैट्स की डिमांड सबसे ज्यादा बढी है। कारण है, महानगरों में बढती आबादी के बाद लगातार घटती जगह। ऐसे में छोटे और बहुमंजिला फ्लैट्स लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। आम लोगों की क्रय शक्ति बढी है। क्योंकि हाल के वर्षो में लोन की व्यवस्था आसान हो गई है। थोडा-बहुत कैश पास में हो और कुछ लोन मिल जाए तो रहने लायक एक घर तो मिल ही सकता है। यही कारण है कि आज युवा नौकरी की शुरुआत में ही घर के सपने देख ले रहे हैं। कुछ साल पहले तक ही लोग रिटायरमेंट के दौर में ऐसे सपने देख पाते थे। भले ही यह घर उनके बचपन के घर से बहुत छोटा है, मगर सुविधाजनक है। बैचलर्स और स्टूडेंट्स स्टूडियो अपार्टमेंट को प्राथमिकता दे रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में यह स्थिति है और मुंबई में प्रॉपर्टी का हाल यह है कि प्रमुख इलाकों में एक हजार स्क्वेयर फुट जगह के लिए एक करोड रुपये तक खर्च करने पड सकते हैं।
न थोडी सी जमीं-न थोडा आसमां… बस एक छोटा सा फ्लैट चाहिए पंद्रह-बीस साल की आसान किस्तों पर।
हम दो हमारे दो एक
चाचा-चाची, दादा-दादी, बुआ, चचेरे भाई-बहन और कम से कम पांच-दस सगे भाई-बहन…। क्रिकेट खेलने के लिए बाहर से क्यों खिलाडी जुटाए जाएं, जब पूरी टीम घर में मौजूद हो। लेकिन अब कहां अफोर्ड किए जा सकते हैं ये लंबे-चौडे परिवार। भारत सरकार ने बरसों पहले नारा दिया था,हम दो-हमारे दो। व्यस्त युवाओं को चीन की बात भा गई, हम दो-हमारा एक । बात तो इतनी दूर तक चल निकली कि डबल इनकम नो किड तक आ पहुंची। 2437 वाली जीवनशैली में बच्चे सीन से गायब होते जा रहे हैं। दिल्ली की एक पी.आर. कंपनी में काम करने वाली प्रज्ञा की शादी के तीन-चार साल हो चुके हैं। बच्चा.. ! चौंक कर उल्टे हमसे सवाल करती है, पालेगा कौन? क्रेश में छोडें या मेड के भरोसे रखें? ना बाबा ना, हम अभी बच्चा अफोर्ड ही नहीं कर सकते। यह अफोर्ड शब्द कुछ ज्यादा ही चलन में नहीं आ गया है!
ट्वीट-ट्वीट की आजादी
आम आदमी को पूरा हक है अपनी बात कहने का! सोशल नेटवर्किग ने अपनी बात कहने का तरीका कितना आसान कर दिया है। सिर्फ एक माउस के क्लिक पर यह सब संभव है। जो कुछ मन में है-बांट दीजिए। ब्लॉग से लेकर फेसबुक और ट्विटर तक की दुनिया हर आम-ओ-खास, अमीर-गरीब सबके लिए समान रूप से खुली हुई है। 140 अक्षरों में अपनी बात को पूरी दुनिया के सामने रखने की बात क्या कुछ साल पहले तक सोची जा सकती थी! ट्विटर ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नए अर्थ दिए। यहां ट्वीट ही नहीं रि-ट्वीट की भी सुविधा है। शायद इसलिए यहां अभिनेता फिल्म का प्रमोशन करते दिखते हैं तो राजनेता आरोप-प्रत्यारोप करते या सफाई देते दिखते हैं। अपनी बात कहने और तुरंत उसकी प्रतिक्रिया जानने का सशक्त माध्यम है यह। महज चार वर्षो में 100 मिलियन से भी ज्यादा एक्टिव यूजर्स हैं ट्विटर के।
छोटे पर्दे का दम
दम तो है बॉस, तभी तो बॉलीवुड की बडी-बडी हस्तियां स्मॉल स्क्रीन पर नमूदार होती रहती हैं। बिग बी अमिताभ बच्चन आम लोगों को करोडपति बनाते हैं, तो अक्षय कुमार शेफगीरी सिखाते हैं। कुछ ही साल पहले की बात है, जब डिनर के समय पूरा परिवार मिलकर दूरदर्शन की धीर-गंभीर खबरें देखा करता था। फिल्में सिर्फ रविवार को आती थीं, बुधवार व शुक्रवार को चित्रहार में नए-पुराने फिल्मी गीत देखे जाते थे। आज स्थिति यह है कि न्यूज चैनल व एंटरनेट चैनल का फर्क खत्म होता जा रहा है। प्राइम टाइम में बॉलीवुड गॉसिप देखी जा सकती है। फिल्मों का प्रमोशन हो या टीवी शोज, सभी बडे स्टार्स छोटे पर्दे पर एकत्र होते हैं। अमिताभ बच्चन के अलावा शाहरुख खान, सलमान खान, करन जौहर और प्रियंका चोपडा जैसे सभी बडे स्टार्स बुद्धू बक्से की छोटी सी स्क्रीन में समा रहे हैं। इसका एक कारण है नाम छोटा सही, मगर दाम यहां काफी बडा मिलता है। साथ ही लाखों-करोडों दर्शकों तक पहुंचने का भी यह सशक्त माध्यम है।
मॉल्स यानी शहर में हाट
गांवों में लगने वाले मेलों की याद है आपको! अपार भीड टूट पडती थी उनमें। बाइस्कोप पर झांसी की रानी, आगरा का ताजमहल, शहीद भगत सिंह, मीना बाजार से लेकर शोले के गब्बर सिंह तक सबकी तसवीरें चलती दिखती थीं। खेल-खिलौने, चूडी-बिंदी, कपडे-लत्ते से लेकर राशन-पानी तक सब-कुछ यहां होता था। परिचितों-दोस्तों से मेलजोल और गर्लफ्रेंड से मुलाकात की माकूल जगह हुआ करती थी यह। महज छह-सात साल पहले जन्मे मॉल्स में जाकर क्या गांव के हाट-मेलों की याद नहीं आती! रस्सी पर चलने वाली नटनी का संशोधित रूप आज बंजी जंपिंग में देख सकते हैं।
एक छत के नीचे यदि हर चीज उपलब्ध हो तो कोई कहीं और क्यों जाए! एयरकंडीशंड वातावरण में इत्मीनान से खरीदारी करें और मल्टीप्लेक्सेज में फिल्म देखें। छोटे दुकानदारों को भले ही इससे नुकसान हुआ हो, शॉपर्स के लिए तो मॉल्स जन्नत ही हैं। इलाके में पावर कट है तो घूमते हुए पास के शॉपिंग मॉल में जाकर समय बिता लें। शॉपिंग, गेम्स, लंच, फिल्म और डेटिंग..सब संभव है यहां!
नौ से बारह, बारह से तीन, तीन से छह, छह से नौ और फिर नौ से बारह…फिल्म देखने के लिए इतनी टेंशन अब कोई नहीं लेता। अपनी सुविधा से किसी भी समय जाइए, मल्टीप्लेक्सेज में कोई न कोई फिल्म आपको मिल ही जाएगी।
बस एक लखटकिया नैनो चाहिए
कल्पना कीजिए कि सुबह नौ बजे ऑफिस पहुंचने की मारामारी हो, सडक पर कई किलोमीटर लंबा जाम हो। आप पसीने-पसीने होकर मायूसी से बार-बार घडी देख रहे हों, झींक रहे हों-खीझ रहे हों। ऐसे में कोई छोटी सी गाडी दायें-बायें से निकलकर आगे बढ जाए तो दिल में कैसी हूक उठती है! दिल्ली स्थित एक कंपनी के मार्के टिंग हेड अखिलेश कहते हैं, कई वर्ष पूर्व मैंने मारुति 800 खरीदी थी। बाद में तरक्की हुई, क्लाइंट्स बढे तो लंबी गाडी खरीदी। सच कहूं तो दिल्ली में ट्रैफिक का जो हाल है, उसमें ऑफिस जाने के लिए मुझे अकसर पुरानी गाडी ही निकालनी पडती है। हमें लगभग रोज क्लाइंट्स के संपर्क में रहना पडता है। नई और बडी गाडी का थोडा रौब तो पडता है, लेकिन दिल्ली में लंबी गाडी लेकर चलने का मतलब है मुसीबत मोल लेना।
टाटा जब अपनी नन्ही सी नैनो लेकर आए तो लोगों की भीड जुट गई उसे देखने के लिए। हालत यह है कि दो लाख से ज्यादा लोगों ने इसके लिए ऑर्डर बुक कराए हैं। डिमांड ज्यादा है-सप्लाई कम। नैनो के बाद महिंद्रा ने निसान के साथ मिलकर और बजाज ने रेनो के साथ मिलकर छोटी कार लाने की घोषणा की है। कंपनियों के बीच जंग अब यह है कि कौन छोटी से छोटी गाडी में बडी गाडी की तमाम सुविधाएं दे सकता है।
स्लिम-स्लीक गैजेट्स की बहार
क्या आप उन लोगों में हैं जो विश्वास रखते हैं कि साइज से कोई फर्क नहीं पडता? अगर हां तो फिर सोच लीजिए। एक शोरूम के मैनेजर का कहना है, स्मॉल, स्लिम गैजेट्स की डिमांड सबसे ज्यादा है। इनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाइए कि आज 40 ग्राम वजन और साढे सात एम.एम. आकार वाले सेलफोन गिनीज बुक में नाम दर्ज करा रहे हैं। हैंडी डी.वी.डी. प्लेयर, आईपॉड, लैपटॉप और कैमरों की मांग बढती जा रही है।
आईपॉड तो डिजिटल युग का आइकॅन बन गया है। यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि यह पोर्टेबल मीडिया प्लेयर पहली बार 2001 में लॉन्च हुआ था। सिर्फ छह साल बाद ही 100 मिलियन से ज्यादा आईपॉड बिक चुके थे। डिजिटल विडियो कैमरे का साइज भी सिगरेट लाइटर जितना दुबला होता जा रहा है।
स्टाइलिश और खूबसूरत अभिनेत्री कट्रीना कैफ खुद को टेक्नोसैवी मानती हैं। कहती हैं, मुझे स्लीक व स्टाइलिश गैजेट्स अच्छे लगते हैं। घरेलू कार्यो के लिए भी मुझे लेटेस्ट मॉडर्न टेक्नोलॉजी वाले हैंडी गैजेट्स ही पसंद है। बी.टेक. थर्ड ईयर स्टूडेंट अतीव वासुदेव कहते हैं, मैं नई टेक्नोलॉजी के बारे में जानने को बहुत उत्सुक रहता हूं। मेरे पास एपल का आईफोन है, लेकिन अब मुझे इसका नया आईफोन खरीदना है, जो ज्यादा स्मार्ट और स्लीक है।
स्मॉल बजट फिल्में= ज्यादा फायदा
बडा सा बजट, खूबसूरत विदेशी लोकेशंस, फोटोग्राफी और ग्राफिक का कमाल..। क्या फिल्म की सफलता महज इन सब बातों पर निर्भर करती है? अगर ऐसा होता तो वीर, ब्ल्यू, काइट्स और रावण जैसी बिग बजट वाली फिल्में हिट होतीं। इसके विपरीत दस करोड तक के सीमित बजट में बनने वाली ए वेडनसडे, एक चालीस की लोकल, भेजा फ्राई, खोसला का घोंसला, देव डी, वेलकम टु स”ानपुर, दस कहानियां, आमिर, रॉक ऑन, लव, सेक्स और धोखा, तेरे बिन लादेन और पीपली लाइव जैसी तमाम फिल्में खूब चलीं और इन फिल्मों ने दर्शकों के दिलों में भरपूर जगह बनाई। नए डायरेक्टर फारुख कबीर कहते हैं, छोटे बजट वाली फिल्म का अर्थ यह नहीं है कि फिल्म छोटी है। मार्केट अब काफी बदल चुका है। जो पहले अनकन्वेंशनल था, अब कन्वेंशनल है। बडे प्रोडक्शन हाउस भी कम बजट की फिल्में बनाने लगे हैं। स्मॉल बजट में दिक्कत यह होती है कि फिल्म की मार्केटिंग कैसे की जाए। ऐसे में बिलकुल अछूता विषय, नई कहानी और ज्यादा रचनात्मक अंदाज की जरूरत होती है। दर्शक उन्हें तभी मिल पाते हैं।
ट्रेड पंडितों का कहना है कि बडे बजट के साथ रिस्क भी बडा होता है और उसकी भरपाई मुश्किल से हो पाती है। खासतौर पर नामचीन डायरेक्टर मणिरत्नम की फिल्म रावण के फ्लॉप होने के बाद प्रोड्यूसर सतर्क हो गए हैं और आने वाली फिल्मों का बजट घटाने लगे हैं।
माइक्रोमिनी आउटफिट्स
माइक्रोमिनी शब्द का सबसे क्रांतिकारी प्रयोग अगर कहीं हुआ है तो वह फैशन इंडस्ट्री है। डिजाइनरों की बात मानें तो थ्री सी यानी क्रिएशन, कट्स और कलर्स यहां बहुत मायने रखते हैं। सबसे बडी चुनौती है, कम से कम कपडे में अधिक से अधिक क्रिएटिविटी, कट्स व कलर्स का बेजोड संगम।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में कॉमर्स स्टूडेंट सौम्या कहती हैं, मुझे हॉट पैंट्स और माइक्रोमिनी स्कर्ट्स बहुत पसंद हैं। मुझे नहीं लगता कि इन्हें पहनने से कोई एक्सपोजर होता है। सच तो यह है कि ऐसे आउटफिट्स के कारण आज हम अपनी फिटनेस के प्रति इतने सजग हैं। इन्हें पहनकर मैं बहुत कॉन्फिडेंट महसूस करती हूं।
किसी भी बडे स्टोर्स में एक 50 साल की स्त्री ठीक वैसे ही आउटफिट्स अपने लिए चुन सकती है, जो किसी 18 साल की लडकी के लिए बने हैं। कारण है फिटनेस के प्रति दीवानगी। यह वह दौर है जब मां-बेटी दोनों हॉट पैंट्स या माइक्रोमिनी स्कर्ट्स पहनकर साथ-साथ घूम सकती हैं। फिट है तो हिट है, यह नया सूत्रवाक्य फैशन इंडस्ट्री में बॉडी हगिंग आउटफिट्स को प्रमोट कर रहा है।
हेल्दी मिनी मील
कम खाओ गम खाओ.. यह बहुत पुरानी भारतीय कहावत है। इसके बावजूद पुराने जमाने में मोटे लोग खाते-पीते खानदान के दिखते थे। आज ऐसे लोगों को ओबेसिटी से ग्रस्त कहा जाता है। पुरानी कहावत में कुछ नया जोड दें तो नया डाइट मंत्र है, थोडा-थोडा खाओ, लेकिन दिन में छह बार खाओ। डाइटीशियन डॉ. तरु अग्रवाल कहती हैं, तीन बार भरपेट भोजन करने के बजाय छह बार थोडा-थोडा भोजन करना अच्छा है, क्योंकि इससे भूख का एहसास कम होता है। यह डाइट इमोशनल ईटर्स के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प है। वेट मैनेजमेंट के लिए भी यह तरीका बेहतर है।
आदर्श साइज जीरो हासिल करने वाली अभिनेत्री करीना कपूर मानती हैं कि 70 फीसदी सही डाइट (जिसमें छह मिनी मील हों), 30 फीसदी व्यायाम और योग स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है। नए डाइट मंत्र का पालन रेस्त्रां भी खूब कर रहे हैं। फुल कोर्स मील को स्मॉल प्लेट्स या स्मॉल पोर्शन में परोसने का स्टाइल हिट है। हालांकि मिनी मील के लिए मिनी मनी से काम चल जाए, यह जरूरी नहीं है।
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दुनिया तो बडी हो गई है
नील नितिन मुकेश (अभिनेता)
मैं नहीं मानता कि दुनिया छोटी हो रही है। टेक्नोलॉजी ने हर सीमा को पार कर लिया है, इसलिए दुनिया सिमट रही है। दूसरे अर्थ में देखें तो दुनिया बडी भी हो रही है, क्योंकि हर क्षेत्र की अपनी अलग पहचान है। आप बुंदेलखंड के किसी छोटे से मोहल्ले में रहकर जानते हैं कि ताज होटल या गेटवे ऑफ इंडिया मुंबई में हैं। जानते हैं कि सोनिया गांधी कहां रहती हैं। हर व्यक्ति सूचना का अधिकार रखता है। मुंबई में जन्मे शख्स को मालूम है कि जबलपुर में क्या मशहूर है। यह सिर्फ एक उदाहरण है। आज पढाई व करियर के अलावा लोग घूमने-फिरने देश-विदेश जा रहे हैं। जो चीजें पहले पहुंच में नहीं थीं, आज आम आदमी तक की पहुंच में हैं।
टेक्नोलॉजी दिनों-दिन एडवांस हो रही है। मैं खुद ट्विटर पर हूं, उसके जरिये दोस्तों-रिश्तेदारों से संपर्क बनाए रखता हूं। जरूरी नहीं कि परिवार बहुत भरे-पूरे हों, जैसे हमारे बचपन में थे। इसका एक बडा कारण शहरों में जगह की कमी, छोटे घर और बेतहाशा बढती महंगाई भी है।
मेरे ही घर के बुजुर्ग मुंबई में नहीं रहना चाहते, क्योंकि उन्हें यहां का मौसम रास नहीं आता, जबकि बेटे-बेटियां जिद करते हैं कि वे साथ आकर रहें। लेकिन सबकी स्थितियां भिन्न हैं। बदलाव तो आएगा ही, विकास की गति हमेशा तेज होगी, उसी तरह जीवनशैली भी बदलेगी, सच्चाई यही है। इसका मन से स्वागत किया जाना चाहिए।
फिल्मों का मामला भी कुछ ऐसा ही है। कभी बहुत स्मॉल बजट फिल्में सुपर हिट हो जाती हैं तो कभी बडा पैसा लगाकर भी दर्शक नसीब नहीं होते। इक्कीसवीं सदी में सब-कुछ बदला सा नजर आता है। पांच-सात साल के बच्चे कंप्यूटर गेम खेलते हैं, मोबाइल ऐसे ऑपरेट करते हैं कि बडे भी चकित रह जाएं। विकास के सकारात्मक-नकारात्मक दोनों प्रभाव पडते हैं।
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छोटी दुनिया में भी सपने बडे हैं
जॉन अब्राहम (अभिनेता)
दुनिया सिमट रही है या छोटी हो रही है, यह बात एक हद तक सही है। आकार में भले ही ये खुशियां माइक्रोमिनी लगें, लेकिन यह भी सच है कि आज दुनिया हमारी मुठ्ठी में है। दुनिया के एक कोने में बैठा आदमी दूसरे कोने तक आसानी से जा सकता है। नेटवर्क के जरिये कहीं भी संपर्क कर सकता है। लोग बढ रहे हैं-महंगाई बढ रही है। क्षेत्रफल या संसाधन तो उस रफ्तार से नहीं बढ रहे। ऐसे में माइक्रोमिनी खुशियां भी हासिल हो जाएं तो बुरा क्या है। मैं कॉमर्स और इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएट हूं, जिसमें पढाया जाता है कि वॉन्ट्स आर अनलिमिटेड बट रिर्सोसेज आर लिमिटेड। यानी इच्छाएं असीमित हैं, जबकि संसाधन सीमित। जाहिर सी बात है कि जितनी आमदनी है, चादर भी उतनी ही फैलानी चाहिए। मेरा मानना है कि शहरी लोग इन माइक्रोमिनी खुशियोंके लिए भी बहुत जद्दोजहद करते हैं। हर शख्स सोचता है कि जो कुछ उसे नहीं मिला, वह उसके बच्चों को मिले।
हमारा पुश्तैनी घर केरल में था। बहुत बडा नहीं था, लेकिन घर जैसा था। तब मैं सोच भी नहीं सकता था कि कभी पॉश इलाके में घर खरीदूंगा। मेरे छोटे भाई अलान का सपना था कि वह रेसर बाइक खरीदे। आज मैं इस काबिल हुआ कि उसे बाइक खरीद कर गिफ्ट कर सका। उसके चेहरे पर मुस्कान देखकर मुझे संतोष हो गया।
मॉल्स बनने से व्यस्त दिनचर्या वाले मध्यवर्ग की कितनी मुश्किलें आसान हो गईं, जरा सोचिए। एक छत के नीचे हमें सब मुहैया है। ज्यादा दौडना-भागना नहीं पडता। क्या यह विकास नहीं है? आज मैं महंगी व रेसर बाइक खरीद सकता हूं, घंटों सेलफोन पर बात कर सकता हूं। मुझे लेटेस्ट टेकनीक्स के बारे में जानना अच्छा लगता है और यह सब मेरी सीमा में आता है। अब मुझे यह चिंता नहीं है कि मेरे बिल कौन भरेगा। जिंदगी की ये माइक्रोमिनी खुशियां ही हमें जीने को प्रेरित करती रहती हैं। फिर भी मैं मानता हूं कि खुशियां भले ही छोटी-छोटी हों-सपने कभी बहुत छोटे नहीं हुआ करते।
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टेक्नो वर्ल्ड में सब आसान है
नीतू चंद्रा (अभिनेत्री)
मैं मानती हूं कि टेक्नोलॉजी के फील्ड में सचमुच क्रांति आई है। इतने एडवांस और हैंडी गैजेट्स बाजार में हैं, जिन्हें देखकर किसी का भी मन ललचा जाए। लेकिन दूसरी ओर पैसे का दिखावा बढ रहा है। शादी-ब्याह, दीपावली या 31 दिसंबर पर जब मैं करोडों का धुआं उडते देखती हूं तो सोचती हूं कि क्या हमारा देश गरीब है! नैनो जैसी कार, आईपॉड, स्लीक सेलफोन बदलती हुई जीवनशैली को ही दर्शाते हैं। मैं छोटे-छोटे बच्चों को ब्लैकबेरी लिए देखती हूं तो आश्चर्य होता है।
मैं टेक्नोलॉजी-विरोधी नहीं हूं, लेकिन विकास कभी भी मूल्यों, परंपरा व संस्कृति की कीमत पर नहीं होना चाहिए। मेरी पढाई पटना के एक महंगे स्कूल से हुई। लेकिन मुझे यह एहसास था कि माता-पिता हैसियत से बढकर मेरे लिए कर रहे हैं। उन्होंने मुझे इंटरनेशनल ताईक्वांडो चैंपियनशिप के लिए हॉन्गकॉन्ग भेजा था और मैं सोचती थी कि उन्हें पूरी दुनिया घुमाऊंगी। मेरे लिए खुशी का अर्थ माता-पिता को खुश रखना था। लेकिन अब खुशी के पैमाने बदल रहे हैं। हम ई-मेल व नेट के जरिये दुनिया से जुडे होने का भ्रम पाल रहे हैं, लेकिन यथार्थ में अपनों से भी दूर हो रहे हैं।
दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस चमक-दमक और दिखावे से ऊब रहे हैं। उन्हें देसी खाना पसंद आ रहा है। वे गांवों की ओर लौट रहे हैं। पीपली लाइव जैसी फिल्म के हिट होने का अर्थ ही यह है कि लोग कहीं न कहींअपनी जडों की ओर जाना चाह रहे हैं। वे यथार्थ देखना चाहते हैं।
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सिमटती हुई दुनिया में ही खुश रहता हूं
विजेंद्र सिंह (बॉक्सर)
आपको दुनिया छोटी दिखती है या बडी, यह तो नजरिये पर निर्भर करता है। मेरे लिए मेरे घर के अंदर की दुनिया बहुत बडी है, लेकिन बाहर मुझे छोटी दुनिया में ही समझौता करना पडता है। पहले दोस्तों के साथ गांव भर में मस्ती करता था। सफलता मिलने के बाद कुछ फोन कॉल्स और एस.एम.एस. तक परिचय का दायरा सिमट गया। गांव में बडा सा घर है, लेकिन अब फ्लैट में जीने की आदत डालनी पड रही है।
मेरा मानना है कि माइक्रोमिनी दुनिया के अपने फायदे हैं। बडे शहरों में फ्लैट्स की जिंदगी का अलग मजा है। कम से कम यहां विकास की गति तो देखने को मिलती है। एक जमाने में हम फिल्म देखने के लिए दो दिन पहले से टिकट लेते थे, क्योंकि एक थिएटर था जिसमें पूरा गांव फिल्म देखता था, वो भी काफी दूर था। अब मल्टीप्लेक्स में एक साथ चार-पांच थिएटर हैं। जब जी चाहा, फिल्म देख ली।
मेरी जिंदगी तो गैजेट्स पर निर्भर है। लाइफ इतनी बिजी है कि दूसरी कोई चॉइस नहीं। ऐसे में मैं एक ब्लैकबेरी में अपनी दुनिया समेटकर चलता हूं। दुनिया के किसी भी कोने में रहूं, दोस्तों के साथ चैटिंग से कनेक्टेड रहता हूं। घर वालों का हाल भी फोन पर पूछता हूं। ये चीजें पर्सनली मिलने-जुलने का विकल्प नहीं हैं, लेकिन मेरे बिजी शेड्यूल में इतना वक्त नहीं है कि अब बडी दुनिया के सुख महसूस कर सकूं। इसलिए इस सिमटी सी दुनिया में रहकर भी मैं खुश हूं।
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गैजेट्स की गुलामी अच्छी नहीं
रेंजिल डिसिल्वा (फिल्म कुर्बान के डायरेक्टर)
दुनिया में बहुत-कुछ नया हो रहा है। नए प्रयोग हो रहे हैं। पहले आमदनी कम थी, परिवार भरे-पूरे थे। आज बिग मनी के दौर में सोच मिनी होती जा रही है। विकास कुछ इस तरह हुआ है, जिसने शहरों व गांवों के फासले को बढा दिया है। महंगाई बढी है, लेकिन लोन सुविधा ने इच्छाओं के अनंत जाल में जकड लिया है। घरों का साइज छोटा हुआ है तो परिवार भी छोटा हो गया है। यह आज के समय की जरूरत है लेकिन मेरा मानना है कि परिवार छोटा होने और परिवार न होने में बडा फर्क है। बच्चे ही नहीं होंगे तो किसके लिए काम करेंगे। युवा जोडों को शादी के बाद तीन-चार-पांच साल तक बच्चे नहीं चाहिए। यह अपनी-अपनी सोच है।
कहीं खो ना जाए ये तारे जमीं पर….
ट्रांसपोर्ट सिस्टम दुरुस्त हो चुका है, लिहाजा दूरियां सिमट गई हैं। अब कहीं भी आना-जाना सुविधाजनक हो गया है। आज से दस साल पहले तक ही हम इतनी जबरदस्त टेक्नोलॉजी की कल्पना नहींकर सकते थे। मेरे पास मेरा प्रिय गैजेट लैपटॉप है, जिसे मैंने काफी पहले खरीदा था। वास्तव में इससे मेरा काम आसान हुआ। मैं ट्विटर-फेसबुक दोनों जगह हूं और मुझे लगता है कि सोशल नेटवर्किग साइट्स के अपने फायदे हैं, लेकिन नुकसान भी हैं। यहां अपनी राय देना आसान है, लेकिन इससे जो दूरियां बढ रही हैं, उन्हें भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। सच कहूं तो मुझे यह बहुत अटपटा लगता है कि हमें प्रियजनों से तो बात करने का वक्त नहीं मिलता, लेकिन गैरों से हम घंटों चैट करते हैं। यू.एस. में बैठे मेरे दोस्त से मेरी बातें चैट पर दिन में 2-3 बार हो जाती हैं। लेकिन वर्चुअल वर्ल्ड हमें यथार्थ से दूर कर रहा है। समाज का उद्देश्य पैसा कमाना ही होगा तो रिश्ते किस दिशा में जाएंगे, यह भी सोचना चाहिए।
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जिंदगी बहुत छोटी है, इसे स्टाइल से जी लें
संजीदा शेख (टीवी कलाकार)
मेरा जन्म कुवैत में हुआ, बाद में हम अहमदाबाद आए। इसके बाद मुंबई में ही बस गए। हर जगह की कुछ खासियतें हैं। मैं इस लिहाज से दुनिया को छोटा मानती हूं कि आज एक कोने में बैठा आदमी अगले ही पल दुनिया के दूसरे छोर पर जा सकता है।
इस दौर में सपने जरूर सिमट गए हैं। शायद बढती महंगाई, अधिक आबादी और व्यस्त जीवनशैली इसका कारण हो। परिवार पहले बडे होते थे, फिर हम दो-हमारे दो तक सिमटे। अब डबल इनकम नो किड्स की बात की जाने लगी है।
विकास का मतलब यह नहीं कि हम अपने संस्कार-संस्कृति को भूल जाएं। सचमुच आज फ्लैट सिस्टम में बडे परिवारों का रह पाना संभव नहीं है। जबकि पुराने समय में पूरे परिवार के साथ कई पैट्स भी पलते थे। हमारे घर के बुजुर्ग तो अपने भोजन से पहले पैट्स को खाना खिलाते थे। अब वह वक्त नहीं लौटेगा, इसलिए शिकायत करने से कुछ नहीं होगा।
गैजेट्स के संसार में तो वास्तव में बडा बदलाव आया है। चार-पांच वर्ष पहले मैंने प्ले-स्टेशन खरीदा। इससे पहले मुझे एक महंगा सेलफोन चाहिए था, जो मैंने खरीदा भी। मुझे लगता है-अब वह पडाव है, जहां अपने माइक्रोमिनी सपने पूरे करने के लिए बहुत इंतजार करना मुझे गवारा नहीं। मेरा मानना है कि जिंदगी बहुत छोटी है, तो इंतजार क्यों करें। इसे स्टाइल से जी लें। छोटी-छोटी खुशियां ही सही, इनसे सुकून तो मिलता है।
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