- 208 Posts
- 494 Comments
सीन 1 : ऑल राउंडर होना जरूरी
जैक एंड जिल..वाली पोयम सुनाओ…
जॉनी-जॉनी यस पापा..
गिटार पर अरेबियन धुन तो सुनाओ
शाहरुख के डायलॉग्स बोलकर सुनाओ..
रॉक एंड रॉल..पर डांस करो..
……………………….
सीन 2 : ऑल इज नॉट वेल
80 परसेंट मार्क्स? अब क्या होगा..!
कितनी बार कहा कम से कम 8 घंटे पढो..कंपिटीशन बहुत टफ है। ऑल इज नॉट वेल बेटा, समझे न!
……………………….
सीन 3 : टाइम मैनेजमेंट
सुबह छह बजे : वेक अप टाइम
आठ बजे : स्कूल टाइम
दोपहर दो बजे : छुट्टी
तीन बजे : लंच
चार से छह बजे : होमवर्क
छह से सात बजे : हॉबी क्लासेज
सात से आठ बजे : ट्यूशन टाइम
साढे आठ बजे : डिनर टाइम
दस से साढे दस : गुड नाइट
(गिव मी सम सनशाइन..गिव मी सम रेन…लेकिन टाइम-टेबल में ऐसा कोई समय नहीं)
……………………….
सीन 4 : पापा कहते हैं
आर्ट, म्यूजिक, स्पोर्ट्स ठीक है, लेकिन एम.बी.ए. तो करना होगा..।
पापा, मुझे इसमें इंटरेस्ट नहीं है।
मैंने कहा कि वही करना है..
लेकिन मुझे ग्राफिक अच्छा लगता है..
मैंने कहा न, जो कह रहा हूं-वही करो…।
……………………….
कल्पना ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है। ज्ञान की तो सीमा है, लेकिन कल्पना दुनिया के किसी भी छोर तक पहुंच सकती है।
-अल्बर्ट आइंस्टाइन
महान वैज्ञानिक का कथन जो भी हो, लेकिन टाइम-टेबल में बंधे बचपन के पास आज कल्पना का समय कहां है! होमवर्क से समय बचे तो टीवी, कंप्यूटर, इंटरनेट, विडियो गेम्स की दुनिया है। हाइटेक हैं ये बच्चे, सूचनाओं से लबालब हैं। हाथ से चम्मच पकडना ठीक से आए न आए, पेंसिल-पेन और माउस ठीक से पकडना आना चाहिए। साबित करो खुद को..। ढाई वर्ष की उम्र से यही तो सिखाया जाने लगता है।
Read: एक बार आ जाने के बाद आप यहां से नहीं जाएगे
अपेक्षाएं बडी-बडी
अधिकतर छात्र मानते हैं कि अब पढाई बहुत मुश्किल होती जा रही है।उन्हें यह डर है कि माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे न उतरे तो क्या होगा। सी.बी.एस.ई. में सी.सी.ई. (कंटिन्युअस एंड कॉम्प्रिहेंसिव इवैल्यूएशन) सिस्टम लागू होने पर नवीं-दसवींकक्षा के ज्यादातर छात्र नाखुश दिखते हैं। डी.पी.एस. (दिल्ली) में नवीं कक्षा में पढने वाले शिवम कहते हैं, इस सिस्टम में एक हफ्ते में तीन-चार असाइनमेंट्स, क्लास टेस्ट, एक्स्ट्रा एक्टिविटीज जैसे तमाम काम करने होते हैं। इस वर्ष कभी बारिश तो कभी कॉमनवेल्थ के कारण छुट्टियां ज्यादा हुई। स्कूल खुलते ही सुपर फास्ट ट्रेन की तरह कोर्स पूरा कराया जाने लगता है। एक चैप्टर के कंसेप्ट स्पष्ट नहीं होते कि दूसरा शुरू हो जाता है। मॉम-डैड को लगता है हम ध्यान नहीं दे रहे हैं। ट्यूटर को समझ नहीं आता..।
मार्क्स कम आने पर अभिभावकों का क्रोध भी छात्रों का स्ट्रेस बढाता है। बारहवीं के छात्र करियर का दबाव महसूस करते हैं। उन्हें मीडिया व कोचिंग सेंटर्स से भी शिकायत है जो टॉपर्स की खूबियों को बढा-चढाकर पेश करते हैं। इससे एवरेज मार्क्स या ग्रेड वाले स्टूडेंट्स व उनके पेरेंट्स हीन-भावना से ग्रस्त होते हैं।
सी.सी.ई.सिस्टम
सी.बी.एस.ई.ने बच्चों के मन से बोर्ड परीक्षा का भय कम करने के लिए अभी नवीं-दसवीं कक्षा में सी.सी.ई. सिस्टम लागू किया है। यह एक ग्रेडिंग प्रणाली है, जिसमें साल भर के परफॉर्र्मेस के आधार पर छात्रों को ग्रेड दिए जाते हैं। हालांकि कुछ छात्र चाहें तो बोर्ड परीक्षा भी दे सकते हैं। इनमें अधिकतर वे हैं, जो स्कूल या बोर्ड बदलने वाले हों।
दिल्ली स्थित जंप संस्था के डायरेक्टर व करियर काउंसलर जितिन चावला कहते हैं, इस सिस्टम को समझने में अभी छात्रों को समय लगेगा। कुछ दिन पहले मैं नवीं कक्षा के छात्रों के साथ था तो उन्होंने कहा कि ग्रेडिंग सिस्टम से उन पर दबाव बढ गया है। लगता है जैसे हमेशा परीक्षाएं चल रही हैं। अच्छी बात यह है कि इसमें प्रतिभाशाली बच्चों को अवसर मिल सकते हैं।
एक बात यह भी है कि जिस रफ्तार से करियर के नए विकल्प आए हैं, उस तेजी से माता-पिता का माइंडसेट नहीं बदल पा रहा है। उन्हें भी नई पीढी के हिसाब से खुद को अपडेट करना चाहिए। एक लडकी हमारे पास आई थी, जिसने डी.पी.एस. फरीदाबाद से इंटरमीडिएट की परीक्षा 96.4 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण की थी। पेरेंट्स की सलाह से उसने इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा दी। कई जगह चयन भी हुआ। हमारे पास आई तो उसे पता चला कि उसकी रुचि अर्थशास्त्र विषय में है। अब उसने इकोनॉमिक्स में ऑनर्स करने का मन बनाया है। इसमें कई करियर विकल्प भी खुले हैं।
दूसरी ओर नोएडा (उत्तर प्रदेश) में रहने वाली सीमा कहती हैं, सी.सी.ई. से दबाव तो बढा है, लेकिन पढाई में एक निरंतरता भी आई है। मेरा बेटा सिद्धार्थ दसवींकक्षा में है। पहले बोर्ड परीक्षा से कुछ समय पहले ही छात्र पढना शुरू करते थे, लेकिन अब हर हफ्ते क्लास टेस्ट व असाइनमेंट्स से उनकी पढाई की आदत बनी रहती है। हालांकि एकाएक इस बदलाव को वे अभी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
Read: आप ही के बच्चे हैं……
दबाव और सेहत
गगनदीप कौर (क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट सेंटर फॉर चाइल्ड डेवलपमेंट एंड एडोलोसेंट हेल्थ, मूलचंद मेडिसिटी, नई दिल्ली) का कहना है, बच्चों पर दबाव बहुत ज्यादा है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। इससे हाइपरटेंशन, एनॉरोक्सिया, ओबेसिटी, डिप्रेशन, ईटिंग डिसॉर्डर, एनेक्जाइटी, बेड-वेटिंग, नेल-बाइटिंग, लो सेल्फ-इस्टीम, स्लीपिंग डिस्टर्बेस और सुसाइडल टेंडेंसी बढ रही है।
दूसरी ओर वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. पी.के. सिंघल (इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल) कहते हैं, पढाई के दबाव से बच्चे कभी बीमार नहीं होते। आजकल बच्चों का अधिकतर समय टीवी-इंटरनेट के आगे गुजरता है। माता-पिता व्यस्त हैं और बच्चे जंक फूड खाते हैं। उन्हें पर्याप्त प्रोटीन, कैल्शियम नहीं मिलता, जिससे वे हाइपरटेंशन से ग्रस्त हो जाते हैं। यदि दिनचर्या नियमित हो, बच्चा सही डाइट ले, बाहर खेले तो वह बीमार नहीं होगा। प्रोटीन की कमी से अवसाद होता है, सुस्ती रहती है और गुस्सा आता है। इसलिए पौष्टिक आहार, व्यायाम, योग, बाहर खेलना जरूरी है।
पेरेंट्स-टीचर्स की जिम्मेदारी
गगनदीप कौर फिर कहती हैं, सी.सी.ई. सिस्टम की दिक्कत यह है कि इसमें बेसिक होमवर्क कम किया गया, जिससे छात्रों पर प्रेशर बढ गया। बोर्ड परीक्षाओं का भय तो कम हुआ, लेकिन दूसरे कई दबाव बढ गए। पहले वे जिन अतिरिक्त गतिविधियों को मजे के लिए करते थे, अब वे मजबूरी बन गए। इस सिस्टम के साथ स्कूलों की व्यवस्था में सुधार भी करने चाहिए। एक टीचर अकेले 40-50 बच्चों पर ध्यान नहीं दे सकता। दूसरे विषयों के टीचर्स को भी यह जिम्मेदारी बांटनी चाहिए।
छात्रों की परेशानियों को सुलझाने के लिए एक अलग पीरियड हो, जिसमें काउंसलर उनकी समस्याएं सुने और उनका निदान करे। इसके अलावा कुछ तेज-समझदार छात्रों के नेतृत्व में ग्रुप्स बनाए जाएं। उनके बीच विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद कराया जाए, ताकि छात्रों में अपनी बात कहने-सुनने की योग्यता पनपे।
यह बात सही है कि कंपिटीशन टफ है। नंबर वन ही सही है, मान लिया जाता है। नंबर दो पर रहने की बात न पेरेंट्स को भाती है, न टीचर्स को। लगातार जीत मिले तो अचानक हुई हार को छात्र बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसलिए उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि जीत-हार से अधिक महत्वपूर्ण प्रतियोगिता में भाग लेना है।
टेक्नोलॉजी का ज्ञान हाईटेक युग में जरूरी है, लेकिन यह छात्रों में तनाव भी पैदा कर रहा है। इसकी सीमा तय करना पेरेंट्स का काम है। आज के दौर में करियर ऑप्शंस बढे हैं, लेकिन कंपिटीशन भी बढा है। अभिभावक इंजीनियर बनाना चाहते हैं, बेटा-बेटी रेडियो जॉकी बनना चाहते हैं। दो छोरों के बीच तालमेल नहीं होगा तो स्ट्रेस होगा। इसलिए माता-पिता और बच्चों के बीच निरंतर-सार्थक संवाद भी जरूरी है।
स्नेह एवं सहयोग जरूरी
देहरादून (उत्तराखंड) स्थित इंडियन पब्लिक स्कूल की आर्ट एंड क्राफ्ट टीचर मौशमी कविराज कहती हैं, मैं रेजिडेंशियल स्कूल में टीचर हूं। यहां छात्रों पर बहुत अधिक दबाव होता है। रात के दस बजे तक किसी न किसी एक्टिविटी में उन्हें लगे रहना होता है। हमारे यहां आई.सी.एस.ई. है। बोर्ड परीक्षा देने वाले बच्चों को स्कूल की अन्य गतिविधियों में भाग लेने से रोक दिया जाता है, ताकि पढाई बाधित न हो। यह बात सही है कि कोर्स टफ है, पढाई के तौर-तरीके भी बदले हैं। करियर ऑप्शंस के साथ कंपिटीशन भी बढा है। पेरेंट्स-टीचर्स की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को पूरा सहयोग दें। बडों के स्नेह व मार्गदर्शन पर बच्चों का हक है और यह उन्हें मिलना ही चाहिए।
Read: पहली बार एक मुर्दे को छुआ तो मैं घबराई
Please post your comments on: आपके बच्चे भी कहीं ना कहीं पढ़ाई को मुश्किल मानते होंगे. क्या आपने कभी भी इसका कारण जानने की कोशिश की है ?
Read Comments