Menu
blogid : 760 postid : 533

दिल तो डरता है जी……

Jagran Sakhi
Jagran Sakhi
  • 208 Posts
  • 494 Comments

ज्यों निकलकर बादलों की गोद से

थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढी

सोचने फिर-फिर यही जी में लगी

आह! क्यों घर छोडकर मैं यों कढी..

..बह गई उस काल एक ऐसी हवा

वह समंदर ओर आई अनमनी

एक सुंदर सीप का मुंह था खुला

वह उसी में जा पडी मोती बनी..।


अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


without homeइस नन्ही बूंद सा ही जीवन है इन लडकियों का भी, जो घर के सुरक्षित माहौल को छोडकर कुछ कर-गुजरने की तमन्ना लिए महानगरों में आ रही हैं। फर्क सिर्फ यह है कि नन्ही सी यह बूंद अब बडी हो गई है, वह आत्मविश्वास से भरपूर है। इसमें मोती बनने का साहस व जज्बा है। मन में यदि कभी संशय के कीट-पतंगे फडफडाते भी हैं तो सपनों की तेज लौ के आगे ये दम तोड देते हैं।



घर एक उपलब्धि है

अभी बहुत दिन नहीं हुए, जब कोई लडकी घर से निकलती थी तो न सिर्फ माता-पिता या समाज के मन में, खुद उसके मन में भी संदेह होता था कि क्या वह अकेली रहकर अपने लक्ष्य पा सकेगी! मुश्किलों के झंझावात के आगे उसका मन डगमगा तो नहीं जाएगा! माता-पिता को भी लडकी को बाहर भेजने से पहले काफी सोचना पडता था। लेकिन जीवन में कुछ पाने के लिए कंफर्ट जोन से बाहर निकलना होता है और यह बात आज की लडकियां बेहतर जानती हैं। इसीलिए तो अपने घर की तमाम सुख-सुविधाएं छोडकर वे एक नए घर में आ जाती हैं। भले ही घर किराये का हो, हॉस्टल या पी.जी. हो, यहां कितनी भी असुविधा व अकेलापन हो, लेकिन यह उनके सपनों का घर है। यहां वे कुछ पाने आई हैं और यह घर उनकी उपलब्धि भी है। यह उन्हें संतुष्टि देता है कि बडी सी इस दुनिया में उनका भी कोई ठिकाना है।


Read: गलती बनी गुनाह, मुकर्रर हुई सजा ए मौत !



जहां रहें हम इक घर बसा लेते हैं

घर का जिक्र होते ही बचपन का घर आंखों के आगे तैरने लगता है। वह घर जहां पहली बार बाहरी दुनिया में आंखें खोली थीं, जहां चलने की कोशिश में घुटने छिल गए हमारे, जहां माता-पिता की उंगलियां पकडकर चलने का पहला सबक सीखा हमने। वह घर जहां सुरक्षा, सुकून और अपनापन था, जहां रिश्तों व दोस्ती की मिठास थी और थी त्योहारों की पूरी मस्ती। बेफिक्र जिंदगी थी उस घर में..।


लेकिन बचपन के घर में भला कोई कब तक रह सकता है! कभी न कभी इस सुरक्षा-कवच को छोडकर आगे बढना होता है। एक दिन बड़े होते ही चिडिया के बच्चे घोंसले से फुर्र हो जाते हैं। उनकी नई जिंदगी शुरू होती है। इसी तरह बचपन के घर से दूसरे रैनबसेरे की ओर कदम बढते हैं। धीरे-धीरे कुछ और रिश्ते जुडते हैं और एक नया घर बन जाता है।


आत्मनिर्भरता की जिद

माता-पिता भी अब लडकियों के सुरक्षित जीवन के प्रति जागरूक हैं। यही कारण है कि लडकियां भी बेहतर शिक्षा हासिल कर रही हैं। शिक्षा ने लडकियों के लिए बाहरी दुनिया के दरवाजे खोले हैं। वे आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ रही हैं। उदारीकरण ने लडकियों के लिए न सिर्फ नए कोर्स पैदा किए, बल्कि रोजगार की संभावनाएं भी पैदा कीं। आज समूचा कामकाजी परिदृश्य लडकियों के पक्ष में दिखाई देता है। पिछले कुछ वर्षो में देश की तमाम बडी कंपनियों में लडकियों की संख्या में इजाफा हुआ है। उच्च पदों पर भी उनकी उपस्थिति बढी है।


आत्मनिर्भरता की इस जिद के पीछे सुरक्षित भविष्य की चाह एक बडा कारण तो है ही, विवाह मार्केट में भी अब सर्वगुण-संपन्न कन्या का नौकरीपेशा होना एक प्लस पॉइंट बन गया है। लडके ऐसी लडकी को प्राथमिकता दे रहे हैं, जो उनकी आर्थिक मदद भी कर सके।


Read: तलाक लिया है…….


दिल तो डरता है जी

घर से बाहर कदम रखना शुरुआत में डराता भी है। अलग शहर, अलग संस्कृति, बोली-व्यवहार, आचार-विचार.., एडजस्ट करने में कुछ समय तो लगता ही है।

नॉर्थ ईस्ट की राहिल दिल्ली में एक मेड एजेंसी चलाती हैं। उनके पिता नहीं हैं और तीन भाई-बहनों में वह सबसे बडी हैं, जिन्हें घर चलाना है। पांच वर्ष हो गए हैं उन्हें यहां। अब छोटा भाई भी उनके साथ है। कहती हैं, नर्सिग की ट्रेनिंग करके दिल्ली आई थी कि हेल्थ सेक्टर में काम करूंगी, लेकिन स्थितियां ऐसी बनीं कि मेड एजेंसी का काम शुरू कर दिया। राहिल को शुरू में अपनी शक्ल व भाषा के कारण मुश्किलें हुई थीं। कहती हैं, कुछ कडवे अनुभव हुए, छींटाकशी हुई, लोगों ने कई बार रास्ता भी गलत बताया, लेकिन अब मैंने मन को कडा कर लिया है। हमने यहां दोमंजिला घर किराये पर लिया है, जिसमें नीचे ऑफिस है और ऊपर हम रहते हैं। अब तो दिल्ली ही मेरा घर बन गया है।

खुद को साबित करना है

देहरादून की फ्रीलांस राइटर दामिनी पिछले 15-16 वर्षो से दिल्ली के मंडी हाउस स्थित एक छात्रावास में रह रही हैं। कहती हैं, इतने साल हो गए हैं यहां कि हॉस्टल भी एक घर में तब्दील हो गया है। हॉस्टल आमतौर पर प्राइम लोकेशन पर होते हैं और मेरे काम की पहली जरूरत है कि मैं ऐसी जगह रहूं, जहां से आवाजाही सुगम हो। यहां अनुशासन व सुरक्षा का जिम्मा हॉस्टल प्रशासन का है। हॉस्टल में वार्डन की अनुमति के बिना माता-पिता भी कमरे तक नहीं आ सकते। सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद पर भी होती है। इस भय से हम घर से निकलना तो नहीं छोड सकते। सौभाग्य से अब तक कोई बुरा अनुभव नहीं रहा है। मेरा मानना है कि अपने आत्मविश्वास व साहस को बनाए रखा जाए। मैं खुद को कमजोर नहीं समझती, न किसी से डरती हूं।


याद भी आता है घर

लखनऊ की प्रतिभा सिंह ने लेडी श्रीराम कॉलेज में समाज कार्य से पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद एनजीओ से जुडना पसंद किया। कहती हैं, बचपन का सपना था कि लोगों से जुडकर काम करूं। पहले पी.जी. में थी, अब किराये पर फ्लैट लिया है। मेरे कई दोस्त हैं, इसलिए अकेलापन नहीं खलता। कभी-कभी होमसिकनेस होती है। बीमार होती हूं तो मम्मी-पापा बहुत याद आते हैं। मेरा मानना है कि लडकियों को भी लडकों जैसी सुविधाएं मिलें तो वे किसी से कम नहींहैं।


वाकई इन लडकियों में प्रतिभा, योग्यता, आत्मविश्वास के साथ ही खुद को साबित करने का जज्बा है। ये घर से दूर अपनी मासूम हसरतों का एक घर बुन रही हैं। दुख-तकलीफ, सुविधा-असुविधा, सुरक्षा-असुरक्षा का खयाल छोड आर्थिक-मानसिक आजादी की दिशा में कदम बढा रही हैं। इनके हौसलों के आगे अब हर मुश्किल नाकाम है।



Read:  मैने किसी को हक नहीं दिया……



Tags: women problems in society, small town girl, small town girl facing problems, small town girl problems, big city management, women and city, girls and city, how girls manage in city



Please post your comments on: यह सच है क्या एक लड़की घर से दूर रहकर ही आत्मविश्वास की परिभाषा जान पाती है ?



Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh