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कॉमेडी की पिंक ब्रिगेड

Jagran Sakhi
Jagran Sakhi
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फिल्म ओमकारा की एक स्त्री पात्र इंदु (कोंकणा सेन) अपनी खास अदा में बोलती है, हंसी महंगी हो रखी है क्या? यह छोटा सा वाक्य सिनेमाहॉल से बाहर निकलने के बाद भी याद रह जाता है। ऐसे दौर में जब आम आदमी की कमर महंगाई और टैक्स के बोझ से ही झुकी जा रही हो, ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकलता हो और उन्हें पूरा करने का फिर भी कोई उपाय न दिखता हो, ऐसे बोझिल दौर में भी हंसी मुफ्त मिलती है और इस पर टैक्स नहीं देना पडता। तो फिर क्यों न खुल कर-खिलखिला कर हंस लें! हर फिक्र को धुएं के बजाय क्यों न हंसी में उडा दें! हंसी के इस बाजार में कोई मंदी नहीं है। वाकई लाख दुखों की एक दवा है हंसी।


Read: आम आदमी का खास समय


इस हंसी का क्या कहना

मुस्कराना एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। दुधमुंहा शिशु भी अपने खयालों में मुस्कराता है। हालांकि वह यह नहीं बता सकता कि क्यों हंस रहा है। थोडा गुदगुदाने पर उसकी मुस्कान खिलखिलाहट में बदल जाती है। बडे होने के बाद धीरे-धीरे बेबात मुस्कराने की आदत छूटने लगती है और चेहरे पर बेबसी, ईष्र्या, घृणा, क्रोध, क्षोभ, कुंठा और न जाने कैसे-कैसे अजीबोगरीब भाव पैदा होने लगते हैं। जब जिंदगी में गंभीरता हावी होने लगती है तो व्यक्ति परिवार और दोस्तों के बीच हंसने के बहाने तलाशता है। कॉमेडी मूवी या कार्यक्रम देखता है, समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में लतीफों के कोने तलाशता है और सोशल साइट्स या एसएमएस के जरिये जोक्स का आदान-प्रदान करता है।


हंसी एक टॉनिक है

हंसी सेहत के लिए किसी टॉनिक का ही काम करती है। फ्रेंच न्यूरोलॉजिस्ट हेनरी रूबेनस्टेन के अनुसार एक मिनट की हंसी व्यक्ति को जितना सहज बनाती है, उतनी सहजता के लिए उसे 45 मिनट तक कोशिशें करनी पड सकती हैं। हंसने से शरीर में रक्त-संचार ठीक होता है और फील गुड कराने वाले कार्टिसोल और एंडोर्फिन जैसे हॉर्मोस बढते हैं। यही नहीं, एक हंसी हार्ट चैंबर में भी रक्त-संचार को संतुलित करती है और कार्डियो-वैस्क्युलर समस्याओं से निजात दिला सकती है। हंसने से तनाव, अवसाद, कुंठा जैसी समस्याएं दूर होती हैं। कई बार तो एक ठहाका असहनीय दर्द से भी छुटकारा दिलाने में कारगर होता है। हंसने से चेहरे की लगभग 17 मांसपेशियों की एक्सरसाइज हो जाती है। अब तो लाफ्टर थेरेपी के जरिये गंभीर रोगों में राहत के प्रयास रंग ला रहे हैं। पार्को में लोग जोर-जोर से हंसने का अभ्यास करते दिख जाते हैं।

हंसी की इसी उपयोगिता को देखते हुए मुंबई के फिजिशियन डॉ. मदन कटारिया ने लाफ्टर योग की शुरुआत की और इस तरह पहला लाफ्टर क्लब वर्ष 1995 में शुरू हुआ। आज संसार में छह हजार से ज्यादा ऐसे क्लब हैं।


मुस्कान का मनोविज्ञान

दिल्ली की वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. भागरानी कालरा कहती हैं, इंसान के मन में कई ऐसी बातें दबी होती हैं जिन्हें वह सामाजिक दबाव या वर्जनाओं के कारण अभिव्यक्त नहीं कर पाता। अनजाने ही ऐसी भावनाओं का प्रकटीकरण हंसी-मजाक के रूप में होता है। इससे अंतर्मन की ग्रंथियां ठीक होती हैं। स्वस्थ हास्य कई तरह की कुंठाओं से निजात दिलाता है। कुछ लोगों का बाहरी रंग-रूप अनाकर्षक होता है, लेकिन वे अपनी कमियों को छिपाने के लिए खूबियों को उभारते हैं। उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक गुण उनके नकारात्मक पहलू को ढक देते हैं। हंसी या ठहाका एक तरह का डिफेंस मेकैनिज्म भी है। व्यक्ति जब निराश होता है तो अपनी खिसियाहट को मिटाने के लिए वह हंसता है, व्यंग्य करता है और खुद का मजाक उडाता है।


ट्रेजडी से उपजी कॉमेडी

हास्य के पीछे अकसर कोई गहरी ट्रेजडी छुपी होती है। हर फिक्र को ठहाके में उडाने की यह कला कई अभ्यासों के बाद आती है। यह भी सच है कि दूसरों की तुलना में खुद पर हंसना ज्यादा मुश्किल होता है। हिंदी फिल्मों की दुनिया में झांकें तो टुनटुन यानी उमा देवी वह कलाकार थीं, जिन्हें देखते ही बेसाख्ता हंसी छूटती थी। क्या यह हंसी उनके मोटी काया को देख कर फूटती थी या फिर उनके चेहरे के हाव-भाव हंसने पर मजबूर करते थे? शायद दोनों ही कारण थे।

गायिका के रूप में उन्होंने अपनी पहचान वर्ष 1947 में पहले ही गीत अफसाना लिख रही हूं से बना ली थी। 40-45 गानों के बाद उन्हें बहुत मौके नहीं मिले। पैसे की कमी ने उन्हें ऐक्टिंग करने को मजबूर किया। बताया जाता है कि टुनटुन का बचपन बहुत अकेला था। मां-बाप बचपन में ही गुजर गए और एक बडा भाई था, जो जल्दी ही मौत के मुंह में चला गया। निजी जीवन की तमाम विसंगतियों को उन्होंने अपने सहज हास्य के जरिये स्वर दिया।


मशहूर कमेडियन-ऐक्टर चार्ली चैप्लिन का जीवन भी बहुत पीडादायक था। शराबी पिता, पागल मां और इन सबके बीच भूख ने अपना काम किया। दर्द के इन अध्यायों ने उन्हें हंसने-हंसाने के सबक सिखाए।

दर्द, निराशा, गुस्सा, क्षोभ का असर जितना गहरा होता है, उतने ही तीखे छूटते हैं हास्य के तीर। जहां सीधे-सीधे बात न की जा सकती हो, वहां व्यंग्य की शैली में कही गई बात असरदार भी होती है और दूसरे को घायल भी कर सकती है। शब्दों की यह चाबुक कई बार इतनी मारक होती है कि सुनने वाले के भीतर से आह-आह निकल जाती है, भले ही मुंह से वह वाह-वाह बोले।

स्त्रियों का सेंस ऑफ ह्यूमर

सर्कस या फिल्मों के जोकर पुरुष ही क्यों होते हैं? हंसाने के कारोबार में स्त्रियां इतनी कम क्यों हैं? क्या उनका सेंस ऑफ ह्यूमर पुरुषों के मुकाबले कम होता है?

वेस्टर्न ओंटेरियो (केनेडा) यूनिवर्सिटी के तीन मनोवैज्ञानिकों, ऐरिक ब्रैसलर, बेलशाइन व रोड ए. मार्टिन ने वर्ष 2006 में किए गए एक शोध में पाया कि स्त्रियों को आमतौर पर ऐसे जीवनसाथी की तलाश होती है जो उन्हें हंसा सके, जबकि पुरुष ऐसा साथी ढूंढते हैं जो उनके सेंस ऑफ ह्यूमर या चुटकुलों पर हंस सके। शोध में पाया गया कि पुरुषों में मौज-मस्ती वाली स्त्रियों के लिए खास चाह नहीं दिखती, जबकि स्त्रियां सहज और हंसने वाले पार्टनर पसंद करती हैं। हालांकि सेंस ऑफ ह्यूमर को दोनों पसंद करते हैं। कुल मिला कर स्त्री की आकांक्षा होती है कोई ऐसा हो जो मुझे हंसा सके, जबकि पुरुष की चाह होती है, कोई ऐसा हो जो मेरी बातों पर हंस सके। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुए एक सर्वे में पाया गया कि स्त्री और पुरुष दोनों ही फन और कॉमेडी पसंद करते हैं, लेकिन दोनों में थोडा सा फर्क है। जहां पुरुष वन-लाइनर्स पसंद करते हैं, वहीं स्त्रियों को हास्य से भरपूर लंबी कहानियां या किस्से पसंद आते हैं। उन्हें किस्सागोई का वर्णनात्मक ढंग भाता है।


पुरुषों में सहनशीलता कम

क्षणिकाओं-हंसिकाओं की दुनिया में चर्चित दिल्ली की डॉ. सरोजिनी प्रीतम कहती हैं, स्त्रियों में सेंस ऑफ ह्यूमर कम नहीं होता। दरअसल उनमें सहनशीलता ज्यादा होती है, जो पुरुषों में कम होती है। द्रौपदी क्या हंस पडी कि महाभारत खडा हो गया। रत्नावली ने ठुकरा दिया तो तुलसीदास ने रामचरितमानस लिख डाला। दूसरी ओर स्त्री तो उपेक्षिता है, जिसे हर रोज रिजेक्शन की मार पडती है और वह उफ भी नहीं करती। पत्नी प्रतिभाशाली हो तो भी पति की नजरों में घर की मुर्गी दाल बराबर होती है। वह बस यही इंतजार करती है कि कभी उसका दिन भी आएगा।


हंसना मना है

दिल्ली की समाजशास्त्री डॉ. रेणुका सिंह कहती हैं, स्त्रियों पर पारिवारिक-सामाजिक दबाव अधिक होते हैं। जोर से बोलना और हंसना उनके लिए वर्जित होता है। चूंकि हास्य केक्षेत्र में वर्जनाओं से मुक्ति की जरूरत अधिक होती है, इसलिए यह क्षेत्र पुरुषों के लिए आरक्षित हो जाता है। पहले हंसने-बोलने का उनका अधिकार घर की चारदीवारी तक सीमित था। देवर-भाभी, जीजा-साली जैसे चुहल भरे रिश्ते इसीलिए बनाए गए, ताकि स्त्रियों का सेंस ऑफ ह्यूमर मरे नहीं, वह इन रिश्तों के जरिये जिंदा रहे। अब तो परिदृश्य काफी बदल चुका है और स्त्रियां भी कॉमेडी की दुनिया में आगे बढ रही हैं।

समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कॉमेडी में स्त्रियों की कम संख्या पर कहती हैं, जब भी स्त्री परंपरा से हट कर कोई काम करती है, उसे नकारा जाता है और उसके सामने चुनौतियां खडी की जाती हैं। स्त्री संवेदनशील होती है। उसकी शारीरिक-मानसिक और भावनात्मक संरचना इस तरह की होती है कि उससे बोल्ड व्यवहार की उम्मीद नहीं की जाती। माना जाता है कि वह रोकर या बेहद लचीले स्वर में ही अपनी बात संप्रेषित कर सकती है। सहज ढंग से सीधे-सीधे वह अपनी भावनाओं का इजहार नहीं कर सकती। ऐसा करने पर उसे अलग मान लिया जाता है। परंपरा से अलग जाकर काम करने के लिए उसे हर स्तर पर खुद को साबित करना पडता है। हास्य का क्षेत्र हमारे समाज में पुरुषों के लिए सुरक्षित रहा है। लडकी को बचपन से जोर से बोलने या हंसने पर टोका जाता है। क्या खी-खी कर रही हो, चुप नहीं रह सकतीं?, कितनी जोर से बोल रही हो? लडकी हो थोडा संयत होकर बोलो..। ऐसे ढेरों वाक्य बचपन से ही उसके व्यवहार पर अंकुश लगाने लगते हैं। शालीनता का पूरा दारोमदार उसके नाजुक कंधों पर होता है। कितनी अजीब बात है कि स्त्री से यह अपेक्षा नहीं होती कि वह जोर से हंसे और पुरुष से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वह रोए। अगर कभी वह रो पडे तो कहा जाता है, क्यों लडकी की तरह रो रहे हो? रोने के अधिकार पर स्त्री का कॉपीराइट है और हंसने पर पुरुष का, ऐसे में कोई सहज कैसे रह सकता है?


.कि रोने से कुछ नहीं मिलता

क्या यह बेहतर नहीं होगा कि स्त्री-पुरुष के शाश्वत विवाद में फंसने के बजाय हंसने के कुछ बहाने खोजे जाएं! रोने, शिकायतें करने, कुढने और दुखी होने से कुछ नहीं मिलता, केवल दुख में इजाफा हो जाता है। हर अंधेरी रात के गर्भ से उजालों भरी सुबह का जन्म होता है और हर तकलीफ की एक हद होती है। दुख के बाद खुशी के पल भी आते हैं।

कॉमेडी जीने का सकारात्मक नजरिया है और कठिन बात को सरल ढंग से कहने का जरिया है। कहते हैं न कि हर वक्त का रोना तो बेकार का रोना है..। रोने से मुश्किलें हल नहीं होतीं। कठिनाइयों और चुनौतियों का हंस कर सामना करें तो ये आसान हो जाती हैं। इसलिए मुस्कराएं कि रोने से कुछ नहीं मिलता, मगर एक प्यारी सी हंसी लाखों गमों को चुटकियों में दूर कर सकती है, हर दिल में मुस्कान के फूल खिला सकती है।


की लाफ्टर रेसिपी

हंसने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है, हमारी लाफ्टर रेसिपी ट्राई करें। इसके लिए चाहिए पांचों स्वाद यानी खट्टा-मीठा-तीखा-नमकीन और कसैला।


सामग्री

100 ग्राम कटाक्ष की खट्टी इमली

50 ग्राम व्यंग्य की तीखी मिर्च

250 ग्राम शरारत की शुगर

नोकझोंक का नमक स्वादानुसार।


विधि

शब्दों के आटे में ऊपर दी गई सारी सामग्री को मिलाएं और हंसी के स्प्रे से धीरे-धीरे इस आटे को मुलायम ढंग से गूंथें। अब इससे छोटे-छोटे हंसगुल्ले तैयार करें और इन्हें ठिठोली के तेल में तल लें। इनका स्वाद बढाने के लिए ठहाकों की गार्निशिंग करें। अब इन्हें गर्मागर्म चिली, स्वीट और सॉर सॉसेज के साथ सर्व करें। इन हंसगुल्लों की लाजवाब खुशबू से रूठे हुए पडोसी भी खिंचे चले आएंगे। खुद भी खाएं और मेहमानों को भी खिलाएं।

नोट : ये हंसगुल्ले डायबिटिक और हार्ट पेशेंट्स के लिए भी फायदेमंद हैं। ये तनाव, अवसाद और हर दर्द को पलक झपकते दूर कर सकते हैं।


व्हूपी गोल्डबर्ग ऑस्कर अवॉर्ड विनिंग ऐक्ट्रेस, न्यूयार्क (यूएस)

द कलर पर्पल और गोस्ट व्हूपी की मशहूर फिल्में थीं। गोस्टके लिए उन्हें गोल्डन ग्लोब और अकेडमी अवॉर्ड मिला। वह दूसरी ब्लैक लेडी थीं, जिन्हें ऑस्कर मिला। उन्हें ग्रैमी, एमी, टॉनी जैसे अवॉ‌र्ड्स भी मिले। उनका टीवी शो द व‌र्ल्ड अकॉर्रि्डग टु व्हूपीचर्चा में है। स्टैंड-अप कमेडियन के अलावा वह रेडियो जॉकी, टीवी होस्ट, ऐक्टिविस्ट, लेखिका व सिंगर भी हैं।


अर्चना पूरन सिंह

जिंदगी से जूझना सिखाते हैं कमेडियन

स्त्रियों को खूबसूरती का सिंबल माना गया है। माना जाता है कि वे हंसा नहीं सकतीं। हालांकि गांवों में कॉमेडी की परंपरा है। स्त्री के प्रेग्नेंट होने पर उसकी सहेली दाढी-मूंछ लगा कर स्वांग करती हैं। ये दृश्य सिर्फ स्त्रियों के बीच में चलते हैं और कई बार वल्गर भी होते हैं।

मैंने कॉमिक कलाकार के रूप में ही शुरुआत की थी। दूरदर्शन पर मेरा पहला शो मिस्टर या मिसेज था। मेरे बॉडी लैंग्वेज, लहजे, हाव-भाव में कॉमेडी है। कॉमेडी सर्कस में भी मैं जज बन कर आ रही हूं। मुझे जॉनी वॉकर, महमूद, जॉनी लीवर के अलावा परेश रावल व राजपाल यादव भी बहुत पसंद हैं।

कहते हैं कि जो इंसान जितना हंसता है, उसके अंदर उतनी ही पीडा होती है। अर्चना पूरन सिंह को लोग ठहाकों के लिए जानते हैं लेकिन ये ठहाके कई मशक्कतों के बाद नसीब हुए हैं। मैं मानती हूं कि खुश रहने से मुश्किलें आसान होती हैं। कॉमेडी मुश्किल विधा है। पुरुषों पर दबाव कम होते हैं, इसलिए वे आसानी से इसे कर पाते हैं। अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम कॉमेडी में भी सहज दिखते हैं। मैं नहीं मानती कि कॉमेडी शोज फूहड हो रहे हैं। जब तक किसी का मजाक न उडाया जाए, उस पर निशाना न साधा जाए, कॉमेडी कैसे पैदा होगी? आज के तनाव भरे माहौल में तो कमेडियंस की मांग और महत्ता दोनों बहुत बढ गई है।


भारती सिंह टीवी कलाकार

कॉमेडी की दुनिया में स्त्रियां इसलिए कम हैं कि उनसे शांत, संयत, शालीन रहने की अपेक्षा की जाती है। मैं मोटी हूं, पारंपरिक तौर पर सुंदर नहीं हूं, शायद इसलिए दर्शक मुझे पसंद करते हैं। लल्ली का मेरा किरदार ब”ाों को बहुत पसंद आया। किसी को हंसाना सबसे मुश्किल है। हालांकि अब स्त्रियों ने इस मिथक को तोडा है कि वे हंसा नहीं सकतीं। तारक मेहता का उल्टा चश्मा की दिशा वखानी और एफआईआर की कविता कौशिक ने कॉमेडी में छाप छोडी है।

इस फील्ड में मेरे गुरु कपिल शर्मा और सुदेश लेहडी हैं। मैं शूटर बनना चाहती थी। दो साल की थी तो पिता गुजर गए। मां ने मुझे अमृतसर के महंगे बीबीके डीएवी कॉलेज में पढाया। मैं अपने खानदान की पहली पोस्ट ग्रेजुएट लडकी हूं। स्त्री के लिए कॉमेडी मुश्किल इसलिए भी है कि वे पुरुषों की तरह द्विअर्थी संवाद सहजता से नहीं बोल सकतीं। मैं किसी का मजाक नहीं उडाना चाहती। मेरी सीमाएं तय हैं। मैं नहीं मानती कि कॉमेडी में फूहडता आई है, लेकिन इसमें थोडी छूट जरूर मिलनी चाहिए। आज के दौर में तो कमेडियन सूत्रधार है, जो आम लोगों की मुश्किलें सामने लाता है।


सुपरहिट कॉमेडी फिल्म

वर्ष 2011 की सुपरहिट कॉमेडी थी ब्राइड्समेड्स, जिसमें सभी मुख्य किरदार स्त्रियों ने निभाए थे। दो ऑस्कर्स के अलावा अकेडमी, बाफता और गोल्डन ग्लोब अवॉ‌र्ड्स के लिए इस फिल्म का नामांकन हुआ। क्रिटिक्स चॉइस मूवी और पीपुल्स चॉइस के बेस्ट ऐक्टिंग और बेस्ट कॉमेडी अवॉर्ड्स इसे मिले। परंपरागत शादी में वधू की सहेलियों के चुटीले हास्य से बुनी इस कहानी में प्रेम, ईष्र्या, नफरत जैसे सारे मसाले मौजूद हैं। फिल्म के हर सीन में दर्शकों के ठहाके गूंजते हैं और फिल्म अंत तक बांधे रहती है।


शाजिया मिर्जा (यूके)

बर्मिघम (यूके) में जन्मी शाजिया साइंस टीचर से स्टैंड-अप कमेडियन बन गई। उन्हें वर्ष 2009 में यूके की 20 सफल मुस्लिम स्त्रियों में शुमार किया गया। द ऑब्जर्वर ने उन्हें ब्रिटिश कॉमेडी के 50 सर्वाधिक लोकप्रिय चेहरों में शामिल किया। स्त्रियों की पर्दा प्रथा के खिलाफ हिजाब के साथ शो करके उन्होंने दर्शकों में सनसनी फैला दी थी। वह सशक्त कॉलमिस्ट भी हैं।


तबस्सुम रेडियो-टीवी एंकर

टेंशन को नो अटेंशन

कॉमेडी का तौर-तरीका मुझे माता-पिता से मिला है। दोनों पत्रकार थे और उर्दू का अखबार निकालते थे। साढे तीन साल की उम्र में मैंने पहला स्टेज शो किया और उन पैसों से पापा ने एक लाफ्टर क्लब बनाया। वहीं से हंसने-हंसाने का सिलसिला चल पडा। आज 67 की उम्र में भी शौक बरकरार है। देव आनंद साहब ने एक बार कहा था कि खुशमिजाजी को बरकरार रखना चाहती हो तो टेंशन को अटेंशन मत दो। मैंने 21 वर्ष तक दूरदर्शन पर फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन जैसा कार्यक्रम प्रस्तुत किया। इसके लिए फ‌र्स्ट लेडी ऑफ इंडियन टेलीविजन का दादा साहब फालके अवॉर्ड मिला। मैं लोगों को बताना चाहती हूं कि स्त्रियां कॉमेडी में भले ही कम हों लेकिन टीवी पर जोक्स लाने वाली मैं पहली महिला एंकर हूं। इसके लिए मुझे जोक्स क्वीन का खिताब भी मिला है। मैं मानती हूं कि हम किसी को भले ही कुछ न दे सकें, थोडी देर हंसा तो सकते हैं।


सरोजिनी प्रीतम, हास्य कवयित्री

शब्दों का जादू चलता है

मेरा जन्म मुल्तान में हुआ था। लेखन के कीडे ने बचपन से ही काट लिया था। शब्द खिलौने थे, जिनके साथ खेलने और उन्हें तोडने-फोडने में मजा आता था। चुटकियां लेने का शौक काफी बढा तो किसी ने समझाया कि लिखना महंगा पड सकता है। मैंने कहा कि मुझे महंगी चीजें नहीं भातीं। मैं पंत, निराला और प्रसाद जैसे कवियों से प्रेरित हूं। मैंने हर विषय पर लिखा है, राजनीति से लेकर स्त्रियों तक।

संगीत विशारद से तलाक पाकर बोली निगोडी मैं तो मियां की तोडी..।

पंजाबी प्रेमिका ने कंजूस प्रेमी की हालत कुछ यों बताई- न छल्ला ही पहनाया न छल्ली (भुत्र) ही खिलाई..।

कंधा मिलता कोई मैं भी सिर रख कर रो लेती न कंधा मिला न मैं रोई।

मेरा मानना है कि स्वस्थ हास्य समाज को जगाने का काम करता है, लेकिन आज सस्ती लोकप्रियता का जमाना है। वल्गर-वर्जित विषय कॉमेडी में छा रहे हैं। स्त्रियां इसलिए भी इस फील्ड में कम हैं, क्योंकि वे फूहडता के इतने पायदान पार नहीं कर सकतीं।

मुझे सीता का महाप्रयाण के लिए बिहार सरकार से फादर कामिल बुल्के अवॉर्ड मिला तो सटायर्स की दुनिया में अकेली भारतीय स्त्री होने के लिए राजा राममोहन राय कलाश्री अवॉर्ड भी मिला। मैं हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लगातार लिख रही हूं। 70 की उम्र पार कर चुकी हूं और उम्मीद है, आगे के 10 साल और लिखूंगी। टीवी के लिए काफी लिखा है और अभी भी कुछ शो•ा आ रहे हैं।


सारा सिल्वरमेन यूएस

कमेडियन, लेखिका, ऐक्ट्रेस, सिंगर-म्यूजिशियन सारा को उनके सोशल टैबूज पर किए गए सटायर्स के लिए जाना जाता है। खास तौर पर रंग-नस्ल-लिंगभेद और कर्मकांडों के खिलाफ उनके कॉमेडी शोज काफी चर्चित रहे हैं। टीवी शो सारा सिल्वरमेन प्रोग्राम की काफी चर्चा हुई और उन्हें प्राइम टाइम ऐमी अवॉर्ड के लिए नामांकित भी किया गया।


तनाज करीम-बख्तियार, अभिनेत्री-कमेडियन

हंसने की आदत ने कमेडियन बना दिया हंसी वाकई महंगी हो गई है। आज लोग इतने व्यस्त और परेशान हैं कि हंसना तक भूल गए हैं। मैं तो कहती हूं उस काम या पैसे का क्या फायदा जो आपका ब्लड प्रेशर बढा दे और दिल कमजोर कर दे! मैं पर्दे पर ही चुलबुली लडकी नहीं दिखती, असल •िांदगी में भी ऐसी हूं। बचपन में शरारतों के कारण माता-पिता और टीचर्स सभी को परेशान कर चुकी हूं और डांट खा चुकी हूं। लेकिन मेरी आदतें सुधरी नहीं, बल्कि आदतें आज रोजगार बन चुकी हैं।

मेरी नजर में बेहतर सेंस ऑफ ह्यूमर वही है जो हंसाए तो, मगर किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाए। अगर अपने मजाक से मैंने किसी को दुखी कर दिया तो ऐसे मजाक का क्या फायदा! मैंने फिल्मों में भी हास्य भूमिकाएं की हैं और अपनी सीमाएं भी तय की हैं। मैं वही करती हूं, जो मेरा दिल चाहता है। सच कहूं तो टेंशन की हालत में मैं भी हास्य कार्यक्रम ही देखना पसंद करती हूं। कॉमेडी मेरे जीवन का हिस्सा है और एक स्त्री होने के नाते मुझे इससे कोई खास फर्क नहीं पडता कि पुरुषों की दुनिया में मुझे खुद को साबित करना है। मैं सहज हूं और सहजता से अपनी भूमिकाएं करती हूं। लोग पसंद करते हैं, यही काफी है।


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