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छोटा सा संसार हमारा

Jagran Sakhi
Jagran Sakhi
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swt home3गगन की उम्र 14 साल है। मम्मी-पापा दोनों ऑफिस जाते हैं। स्कूल से लौटने के बाद वह खुद घर का ताला खोलता है और खाना गर्म करके खाता है। थोडी देर आराम करने के बाद पढाई, पार्क में दोस्तों के साथ खेलना, वहां से लौटकर थोडी देर तक मम्मी-पापा का इंतजार, डिनर ..अगली सुबह से फिर वही सिलसिला। केवल गगन ही नहीं, बल्कि महानगरों में रहने वाले हर चौथे-पांचवें बच्चे की यही दिनचर्या है क्योंकि आजकल ज्यादातर दंपती एक ही संतान रखना पसंद करते हैं। कैसा होता है अकेले बच्चे का जीवन? आइए जरा झांकते हैं ऐसे ही परिवारों में।


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बदलते वक्त की जरूरत

भारतीय समाज में लोगों की जरूरतें और प्राथमिकताएं तेजी से बदल रही हैं। आज हर इंसान अपने रहन-सहन का स्तर बेहतर बनाना चाहता है। इसी वजह से ज्यादातर परिवारों में स्त्रियां भी कामकाजी होने लगी हैं। घर और करियर के बीच संतुलन बनाना उनके लिए बेहद मुश्किल काम है। एक बच्चे के लिए तो करियर में थोडा ब्रेक लिया जा सकता है, लेकिन दो बार ऐसा करना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं होता। एक निजी कंपनी की मार्केटिंग मैनेजर कविता केडिया कहती हैं, मेरे पति आनंद भी मार्केटिंग के फील्ड में ही हैं। हम दोनों के पेरेंट्स उदयपुर में रहते हैं। लिहाजा, बच्चे की जिम्मेदारी हमें अकेले ही उठानी थी। शादी के दो साल बाद जब मेरे बेटे का जन्म हुआ तो उसकी देखभाल के लिए मुझे अपने करियर से लगभग ढाई साल का ब्रेक लेना पडा। इतने छोटे बच्चे को घर पर आया के भरोसे छोडने की हिम्मत मुझमें नहीं थी और मेरे पति उसे क्रेश में रखने के सख्त खिलाफ थे। जब उसने प्ले स्कूल जाना शुरू किया तो मैंने दोबारा नए सिरे से नौकरी शुरू की।

प्रोफेशनली इसका मुझे काफी नुकसान उठाना पडा। यह देखकर बहुत दुख होता है कि आज मेरे पुराने कलीग्स बडी कंपनियों में मुझसे दोगुने पैकेज पर काम कर रहे हैं। अब मेरा बेटा आठ साल का हो चुका है। फ्लैट और कार की ईएमआई चुकाने के लिए हम दोनों की नौकरी बहुत जरूरी है। ऐसे मुश्किल हालात में मैं दूसरे बच्चे की कल्पना भी नहीं कर सकती।


चाहत बेहतर भविष्य की

आज की मध्यमवर्गीय युवा पीढी में ज्यादातर ऐसे लोग हैं, जिनका बचपन बेहद सादगीपूर्ण था। तब उन्हें अपनी मनपसंद चीजें हासिल करने के लिए काफी संघर्ष करना पडता था। उनके मन में कहीं न कहीं इस बात की कसक जरूर रह गई है कि बचपन में हम छोटी-छोटी चीजों के लिए तरसते थे, लेकिन अपने बच्चे के साथ ऐसा नहीं होने देंगे। इस संबंध में 46 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर आशीष गौड कहते हैं, हम छह भाई-बहन हैं। पिता सरकारी नौकरी में थे। आज भले ही हम अपने जीवन में संतुष्ट और खुश हैं, लेकिन हमारा बचपन बेहद अभावग्रस्त था। हमारे पेरेंट्स दिन-रात हमारी जरूरतें पूरी करने की कोशिश में जी जान से जुटे रहते थे। उन्हें कभी भी चैन से अपनी जिंदगी जीने का मौका नहीं मिला। फिर आज के जमाने में तो बच्चों की परवरिश और भी मुश्किल हो गई है। बढती महंगाई के इस दौर में बच्चों की शिक्षा सबसे ज्यादा खर्चीली है। यही देखते हुए हमने यह तय कर लिया था कि हमारी एक ही संतान होगी। हमारी एक ही बेटी है और आजकल वह आईआईटी रुडकी से इंजीनियरिंग कर रही है। अगर हमारे दो बच्चे होते तो शायद हम उन्हें इतनी अच्छी जिंदगी नहीं दे पाते। जहां तक उसके अकेलेपन का सवाल है तो भले ही उसके सगे भाई-बहन नहीं हैं, लेकिन शुरू से ही हमने उसकी परवरिश इस ढंग से की है कि उसे यह कमी महसूस न हो। वह बहुत खुशमिजाज है और कजंस के साथ उसके संबंध अच्छे हैं।


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swt home4बडी होती दोस्तों की दुनिया

इकलौते बच्चों की परवरिश के मामले में सबसे बडी दिक्कत यह आती है कि उनके माता-पिता को ही भाई-बहन की भी भूमिका निभानी पडती है। छोटी उम्र में तो वे मम्मी-पापा के साथ ही खेलते हैं, लेकिन टीनएज में आने के बाद उन्हें हमउम्र दोस्तों की जरूरत बहुत ज्यादा महसूस होती है। उम्र के इस दौर में उनके लिए दोस्तों की अहमियत सबसे ज्यादा होती है, उनसे वे अपने दिल की सारी बातें शेयर करते हैं। इस संबंध में बी. कॉम. प्रथम वर्ष की छात्रा रूपाली कहती हैं, मेरे मम्मी-पापा दोनों जॉब में हैं और मैं उनकी इकलौती संतान हूं। मुझे घर पर अकेले रहना बिलकुल पसंद नहीं था। इसलिए छोटी उम्र से ही मैं दूसरे बच्चों से बहुत जल्दी दोस्ती कर लेती थी। सोशल नेटवर्किग साइट्स पर भी मैं काफी एक्टिव हूं। पहले अकसर मुझे ऐसा लगता था कि अगर मेरी कोई बडी बहन होती तो मैं उससे अपने दिल की सारी बातें शेयर करती क्योंकि हर बात मम्मी-पापा को नहीं बताई जा सकती। स्कूल की मेरी एक सीनियर दीदी आज भी मेरी बेस्ट फ्रेंड हैं। जब भी मैं किसी परेशानी में होती हूं तो उनसे सलाह जरूर लेती हूं।


जिम्मेदार होते हैं इकलौते बच्चे


आमतौर पर इकलौते बच्चों के बारे में ऐसी धारणा बनी हुई है कि वे स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होते हैं, पर अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार भाई-बहनों के साथ पलने वाले बच्चों की तुलना में इकलौते बच्चे ज्यादा परिपक्व और जिम्मेदार होते हैं। माता-पिता अपना सारा ध्यान और समय एक ही बच्चे पर देते हैं, इसलिए इकलौता बच्चा खुद को उनके बहुत करीब महसूस करता है। विज्ञापन एजेंसी में कार्यरत अल्पना शर्मा कहती हैं, मेरे बेटे की उम्र 10 वर्ष है। वह समय से पहले ही बहुत ज्यादा जिम्मेदार हो गया है। जब कभी मैं बीमार होती हूं तो वह चाय, टोस्ट, ऑमलेट जैसी चीजें खुद बना लेता है और मुझे अपने हाथों से दवा खिलाता है। उसे इस बात का एहसास है कि अगर मैं अपने मम्मी-पापा का खयाल नहीं रखूंगा तो कौन रखेगा?


और भी हैं वजहें

बच्चे को अच्छी शिक्षा और आरामदायक जिंदगी देने की महत्वाकांक्षा अकसर दंपतियों को ऐसा निर्णय लेने को विवश कर देती है, पर एक ही बच्चे तक परिवार सीमित रखने के पीछे सिर्फ यही कारण नहीं है। और भी कई ऐसी बातें हैं जिनकी वजह से लोग परिवार में एक ही बच्चा रखना पसंद करते हैं। इस संबंध में स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. वारिजा कहती हैं, नई पीढी करियर में अच्छा मकाम हासिल करने के बाद ही शादी का निर्णय लेती है। इसीलिए अब लडकियां भी 27-28 वर्ष से पहले शादी नहीं कर पातीं। ऐसे में वे किसी तरह पहले बच्चे को तो जन्म दे देती हैं, लेकिन जब दूसरे की बारी आती है तो उनकी उम्र 30 पार कर चुकी होती है। तनावपूर्ण और अति व्यस्त जीवनशैली की वजह से अकसर उन्हें हाई ब्लडप्रेशर और डायबिटीज जैसी स्वास्थ्य समस्याएं परेशान करने लगती हैं। ऐसे में उनकी सेहत उन्हें दूसरे बच्चे को जन्म देने की इजाजत नहीं देती। इसकी दूसरी वजह यह भी है कि अब लडकियों की सहनशक्ति तेजी से कम होती जा रही है। कई लडकियां तो मुझसे आग्रह करती हैं कि मैं नॉर्मल डिलिवरी का दर्द नहीं झेल सकती, इसलिए प्लीज आप सिजेरियन कर दीजिएगा। ऐसे में किसी तरह हिम्मत जुटाकर वे एक बार तो अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेती हैं, पर दोबारा मां बनने को तैयार नहीं होतीं। खासतौर पर पहला बच्चा अगर बेटा हो तो परिवार के अन्य सदस्य भी दंपती पर दूसरे के लिए दबाव नहीं डालते। समाज चाहे कितना ही तरक्की क्यों न कर ले, लेकिन बेटे के प्रति लोगों का मोह आज भी कम नहीं हुआ है। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो देश की कुल आबादी में लडकियों का प्रतिशत तेजी से कम होने लगेगा। फिर आने वाले सौ वर्षो में भारत की स्थिति भी चीन जैसी हो जाएगी और लडकों की शादी के लिए लडकी मिलने में बहुत दिक्कत आएगी।


भाई-बहन बिना कैसा परिवार

वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ.भागरानी कालरा कहती हैं, इकलौते बच्चों से उनका बचपन छिनता जा रहा है। घर में उनके साथ खेलने और बातें करने वाला उनका कोई हमउम्र साथी नहीं होता। ऐसे बच्चे घर में हमेशा बडों के साथ रहते हैं। इसलिए छोटी उम्र से ही वे बडों जैसी गंभीर बातें करने लगते हैं। हमारे समय में बच्चे अपने भाई-बहनों के साथ खेलते हुए बडे होते थे। इससे उनमें शेयरिंग, स्वस्थ प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा की भावना सहज ढंग से विकसित होती थी, पर आज के बच्चे स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होते जा हैं। अगर हर परिवार में एक ही बच्चा हो तो आने वाली पीढियों में पारिवारिक रिश्ते-नाते खत्म हो जाएंगे और बच्चे मामा, चाचा, बुआ और मौसी जैसे रिश्तों के अपनत्व और प्यार से वंचित रह जाएंगे।


समाजशास्त्री डॉ. रेणुका सिंह के विचार भी कुछ ऐसे ही हैं, इकलौता बच्चा बेहद आरामदेह और सुरक्षित माहौल में पला-बढा होता है। ऐसे बच्चों में भावनात्मक परिपक्वता नहीं होती। इसलिए बडे होने के बाद जब ये बाहर की दुनिया में कदम रखते हैं तो वहां इन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पडता है। इसलिए इन्हें दूसरों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में बहुत दिक्कत आती है।


बेहद निजी है यह निर्णय

मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, आज के पेरेंट्स बेहद जागरूक हैं। अगर वे एक ही बच्चा रखने का निर्णय लेते भी हैं तो उन्हें यह मालूम होता है कि अकेले बच्चे की परवरिश किस ढंग से करनी चाहिए। वैसे भी, आजकल बच्चों के पास इतनी सारी एक्टिविटीज होती हैं कि वे हमेशा व्यस्त रहते हैं और उन्हें जरा भी अकेलापन महसूस नहीं होता। हर इंसान की जीवन स्थितियां दूसरे से अलग होती हैं और परिवार में बच्चों की संख्या निर्धारित करने का निर्णय भी बेहद निजी होता है। भारत में लोग अपनी सहूलियतों को ध्यान में रखते हुए स्वेच्छा से यह निर्णय ले रहे हैं। आज बढती आबादी हमारे देश की ज्वलंत समस्या बन चुकी है तो ऐसे में गंभीर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों के बावजूद इस निर्णय के मूल में निहित विचार को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता।


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