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मेरे घर के आगे मोहब्बत लिखा है

Jagran Sakhi
Jagran Sakhi
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‘जहां मोहब्बत होती है वो घर ही परिवार कहलाता है’


familyघर-परिवार का रिश्ता कुछ ऐसा ही होता है। थोडा खट्टा, थोडा मीठा। कभी नोक-झोंक और कभी मान-मनौवल। इतना ही नहीं, कभी घात-प्रतिघात, कभी षडयंत्र और कभी एक-दूसरे के हितों के लिए जान तक दे देने का ज ज्बा। यह जज्बा सिर्फ कहने-सुनने तक ही सीमित नहीं होता, व्यवहार में भी दिखता है। शायद इसीलिए रिश्तों के संबंध में आम भारतीय कहावत है- खून हमेशा पानी से गाढा होता है।


पारिवारिक रिश्तों को सहेजने-समेटने की सोच हमारी परंपरा में ही रही है और यही वजह है जो भारत में औद्योगिक क्रांति के बहुत बाद तक परिवार का अर्थ संयुक्त परिवार से लिया जाता रहा है। कई पीढियों के लोग एक छत के नीचे एक साथ सिर्फ रहते ही नहीं रहे हैं, सभी सबके सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझते रहे हैं। पर्व-उत्सव से लेकर व्यवसाय और रिश्तेदारियों तक के निर्णय सामूहिक होते रहे हैं। एकता में शक्ति की धारणा तो इसके मूल में रही ही है, हमारी कृषि और व्यापार आधारित अर्थव्यवस्था में भी इसका बडा योगदान रहा है। संयुक्त परिवार और सबके साथ रहने की इसी व्यवस्था ने हमें इतने रिश्ते दिए, जितने शायद दुनिया में कहीं और नहीं हैं। बच्चों की परवरिश और बुजुर्गो की देखभाल हमारे लिए चिंता की बात नहीं रही। इसीलिए ओल्ड एज होम एवं क्रेश भी बीती शताब्दी के अंतिम दशक तक केवल औद्योगिक महानगरों के कुछ हिस्सोंतक सीमित रहे और इन जगहों पर किसी परिवार के बुजुर्गो या बच्चों होना शर्मनाक माना जाता रहा।


रिश्तों की जमा पूंजी

छोटी-छोटी बातों से

अब हमारी प्रतिष्ठा और सुविधा दोनों ही के विपरीत होते हुए भी कई परिवारों के लिए यह आवश्यकता बन चुकी है। सरसरी तौर पर देखें तो यह दो बातों का नतीजा है। एक तो औद्योगिक क्रांति के चलते अपनी मूल जगहों से नौकरी के लिए युवाओं का टूटना और दूसरे परंपरागत मूल्यों-मान्यताओं के कारण बुजुर्गो का उन्हीं मूल जगहों से जुडे रहना। इन्हीं दो बडी वजहों के बीच में कई और छोटी-छोटी वजहें भी हैं, मसलन- युवाओं में निजी स्वतंत्रता की चाह, बुजुर्गो में अपने परंपरागत मूल्यों एवं रीति-रिवाजों को न छोडने की जिद और कई पीढियों की अर्जित पैतृक संपदा को न सिर्फ सहेजने, बल्कि उसी जगह बनाए रखने का मोह। कुछ परिवार पहली दो वजहों से बंटे तो कुछ बाद की छोटी-छोटी बातों से अपनी मूल जगह पर रहते हुए भी बंट गए। बहुत सारे परिवार अधिक से अधिक संपदा पर अपने अधिकार की चाहत और इसके चलते भाइयों के बीच बढी प्रतिस्पर्धा के चलते भी बंटे। नतीजा यह हुआ कि संयुक्त परिवार की अपनी व्यवस्था के कारण दुनिया भर में अलग पहचान रखने वाला भारतीय समाज छोटे-छोटे एकल परिवारों का समाज बनता चला गया।


वक्त की जरूरत

परिवारों के टूटने के पिछली लगभग एक शताब्दी के हमारे अनुभव ने हमें बहुत कुछ सिखाया भी। हमने जाना कि एकल परिवार में निजी स्वतंत्रता की मृग मरीचिका और संयुक्त परिवार के अनुशासन से मिलने वाली सुरक्षा व निश्चिंतता के बीच क्या फर्क है। खास कर यह अनुभव हमें तब हुआ जब बढती महंगाई और जरूरतों ने पति-पत्‍‌नी दोनों को नौकरी के लिए मजबूर कर दिया और बच्चों की परवरिश एक समस्या बन गई। दूसरी तरफ, अपने से दूर मौजूद बुजुर्ग माता-पिता के स्वास्थ्य की चिंता भी बेचैन बनाए रखने लगी। किसी के लिए यह संभव नहीं कि बार-बार हजार किलोमीटर दूर माता-पिता के पास आ-जा सके। इस समस्या ने ही उनका ध्यान संयुक्त परिवार की ओर खींचा। लोगों को यह लगने लगा कि आए दिन माता-पिता के स्वास्थ्य और बच्चों की देखभाल को लेकर फिक्र करते रहने से बेहतर है, सबको साथ लेकर रहा जाए। यही वजह है जो अब सभी संयुक्त परिवार की परंपरागत व्यवस्था को अहमियत देने लगे हैं। मैट्रिमोनियल वेबसाइट शादी डॉट कॉम द्वारा अपने सदस्यों के बीच किया गया एक सर्वे बताता है कि 54 प्रतिशत लडकियां संयुक्त परिवारों में रहना चाहती हैं और संयुक्त परिवार से उनका आशय केवल सास-ससुर तक ही सीमित नहीं है, इस दायरे में भाई-बहनों समेत पूरा परिवार आता है। दिल्ली में ही सॉफ्टवेयर इंजीनियर मिताली चंदा कहती हैं, ज्वाइंट फेमिली का जो सपोर्ट सिस्टम होता है, वह किसी भी स्थिति में बिखरने नहीं देता। आपके साथ कुछ ऐसे लोग होते हैं, जिनके बारे में आप हमेशा आश्वस्त रह सकते हैं कि वे हर हाल में साथ देंगे ही और इसके लिए हमें अतिरिक्त रूप से एहसानमंद होने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि वे हमारे अपने हैं।


महिला है तू बेचारी नहीं

घट रहा टकराव

हालांकि समाजशास्त्री प्रो. सत्य मित्र दुबे इसे एक एक नए ढंग की सामाजिक संरचना के रूप में देखते हैं। वे इसे संयुक्त परिवार के बजाय विस्तृत परिवार का नाम देते हुए कहते हैं, सास-बहू के बीच का टकराव कम हो रहा है। बल्कि वे साथ रहना पसंद करने लगी हैं। इसकी कई वजहें हैं। कामकाजी दंपतियों के लिए यह संभव ही नहीं है कि अपने बच्चाों और घर की देखभाल कर सकें। ऐसी स्थिति में माता-पिता या सास-ससुर के साथ होना उन्हें आत्मिक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा देता है। मैंने चीन में रहते हुए यह देखा कि वहां युवा जोडों में माता-पिता के साथ रहने की चाह एक प्रवृत्ति बनती जा रही है और अध्ययन बताते हैं कि केवल भारत और चीन ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया में यह रुझान बढा है। प्रो. दुबे जिन कारणों की ओर संकेत कर रहे हैं, नई पीढी उसे साफ तौर पर स्वीकार करती है। मल्टीनेशनल कंपनी में इवेंट मैनेजर लिपिका शाह कहती हैं, मुझे पता है कि शादी के बाद न्यूक्लियर फेमिली में होना नुकसानदेह होगा। बच्चो होने के बाद मेरे लिए अपनी जॉब कंटिन्यू कर पाना संभव नहीं होगा। मैं अपनी उन दोस्तों को शादी के बाद भी बिलकुल निश्चिंत देखती हूं जो अपने इन-लॉज के साथ हैं। उन्हें इस बात की फिक्र नहीं होती कि बच्चो की देखभाल कौन करेगा। उनके पति को भी इस बात की चिंता नहीं होती कि अलग या दूर रहने वाले उनके पेरेंट्स कैसे हैं। जबकि न्यूक्लियर फेमिली सेटअप वाले अकसर तनाव में होते हैं। संयुक्त परिवार में रोक-टोक और विवादों पर साइंटिस्ट उर्विका भट्टाचार्जी का जवाब है, मेरी शादी के दो साल हो गए और अभी तक तो ऐसी कोई अनुभव नहीं हुआ। मुझे तो लगता है कि सास-ससुर की ओर से रोक-टोक की जो बात है, वह केवल टीवी सीरियल्स में होता है। हो सकता है कि जो बहुत ट्रडिशनल लोग हैं वे ऐसा करते भी हों, लेकिन पढे-लिखे लोग युवाओं के हालात जानते हैं और उनकी भावनाओं की कद्र भी करते हैं। यह जरूर है कि जो बडे लोग हैं, वे आपसे रिस्पेक्ट की उम्मीद करते हैं और वह आपको करनी चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि आप किसी व्यवस्था से सिर्फ सुविधाएं हासिल करें और अपना फर्ज न निभाएं, ऐसा नहीं चल सकता। थोडी-बहुत नोक-झोंक तो पति-पत्नी के बीच भी होती है। इसे लेकर बहुत सोचने की आवश्यकता नहीं है।


स्पर्श का नाता एहसास से है

केवल स्वार्थ नहीं

यह बात केवल सुविधा और कर्तव्य तक ही सीमित नहीं है। असल में यह टकराव दो पक्षों के स्वार्थो के बीच का है। अधिकतर लोग अपने स्वार्थ तो साध लेना चाहते हैं, लेकिन जब दूसरे पक्ष के हितों की बात आती है तो किनारे हट जाते हैं। आम तौर पर लोग चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारे अनुसार थोडा सामंजस्य बनाएं, लेकिन दूसरों के लिए स्वयं समझौता करना उन्हें भारी लगता है। अपने ही स्वार्थो को हमेशा ऊपर रखने की प्रवृत्ति लंबे समय तक चल नहीं सकती। यह सही है कि संबंधों के मूल में अकसर स्वार्थ या आपसी हित होते हैं, लेकिन संबंधों का आधार प्रेम है, स्वार्थ नहीं। जहां स्वार्थ हावी हो जाते हैं, वहां संबंध बोझ बन जाते हैं। प्रो. सत्य मित्र दुबे दो तरह के लोगों की बात करते हैं, एक वे जो पूरे परिवार को हर हाल में साथ लेकर रहना चाहते हैं और दूसरे वे जो अलग ही रहना पसंद करते हैं। जो साथ रहना चाहते हैं वे दूर रहकर भी एक-दूसरे की चिंता करते हैं। संपर्क बनाए रखते हैं। जिनकी सोच केवल अपने तक सीमित है, वे एक ही शहर में रहते हुए भी अपने बुजुर्गो का हालचाल तक नहीं लेते। आजकल महानगरों में बुजुर्गो की जो हत्याएं बढ रही हैं, इसकी बडी वजह यह प्रवृत्ति है।

अगर आपसी संपर्क बनाए रखा जाए तो न केवल ऐसे दुखद दुर्घटनाओं, बल्कि दंपतियों के बीच बढते तलाक के मामलों, बच्चों में बढते अकेलेपन और किशोरों में बढते डिप्रेशन एवं तनाव जैसी स्थितियों पर भी बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है। क्योंकि बुजुर्ग केवल संरक्षक और अनुशासन के केंद्र ही नहीं, घर में सेफ्टी वॉल्व का काम भी करते हैं। कई बार उनका रोष, कभी सलाह और कभी स्नेह बडी-बडी समस्याओं को आसानी से हल कर देता है। सैद्धांतिक ज्ञान पर जीवन के अनुभव हमेशा भारी पडते हैं। भारतीय परिवारों की संरचना की इसी विशिष्टता को देखते हुए यूरोप में ओल्ड एज होम्स और क्रेच अलग-अलग रखने के बजाय बुजुर्गो और बच्चों को साथ रखने की संकल्पना पर कुछ प्रयोग किए गए। इन प्रयोगों और कुछ अन्य अध्ययनों से उन्हें सकारात्मक निष्कर्ष मिले।


संपर्क मुश्किल नहीं

हमारे देश में बहुत लोगों को अपनी परंपरा से यह एहसास मिला है। उन्हें दूर रहते हुए भी परिवार व रिश्तेदारों से संवाद बनाए रखना जरूरी लगता है। वे मानते हैं कि व्यस्तता और दूरी बहाना है, संपर्क बनाए रखना अब मुश्किल बात नहीं है। मध्य प्रदेश के सागर से आए चार्टर्ड एकाउंटेंट शिवेन्द्र परिहार दिल्ली में पत्नी और बच्चाों के साथ रहते हैं। उनके एक भाई, जो शिक्षक हैं, माता-पिता के साथ गांव में रहते हैं और दूसरे स्वीडेन में। शिवेंद्र के पिताजी के भी दो भाई हैं और सभी साथ रहते हैं। वह कहते हैं, हमारे बीच संपर्क निरंतर बना रहता है। फोन पर तो ह फ्ते-दो हफ्ते में बात हो पाती है, लेकिन इंटरनेट के मार्फत चैटिंग और संदेशों का आदान-प्रदान लगभग रोज की बात है।

हालांकि संवाद-संपर्क की यह बात बुजुर्गो और बडों तक ही सीमित नहीं है। रिश्तों का सपोर्ट सिस्टम छोटे-बडे सबसे मिल कर ही बनता है। अलग-अलग मामलों में सबके ज्ञान और अनुभव काम ही नहीं आते, बल्कि तनाव भी कम करते हैं। निस्संदेह, यह खुशी की बात है कि नई पीढी अपनी परंपरा की खूबियों को न सिर्फ पहचानती है, बल्कि उन्हें अपनाने के लिए स्वयं आगे बढ रही है।


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